आखिर क्यों नए-नए इस्लाम धर्म में परिवर्तित देश ही फ्रांस के खिलाफ मैदान में हैं?

पिछले कुछ दिनों से फ्रांस और मुस्लिम देशों के बीच भयंकर तनाव देखने को मिल रहा है जिसकी अगुवाई तुर्की के एर्दोगन कर रहे हैं। परंतु अगर गौर से देखा जाए तो फ्रांस का विरोध कर रहे देशों में समानता दिखाई देगी। फ्रांस कट्टरवाद के खिलाफ मोर्चा खोलने के बाद उसके खिलाफ खड़े होने वालों में उन लोगों की अधिकता अधिक है जो नए-नए इस्लाम धर्म में परिवर्तित हुए हैं जबकि अरब देशों ने उतना खुल कर विरोध नहीं किया है जितने की उम्मीद की जाती है।

फ्रांस में कट्टरपंथी इस्लामवादी द्वारा फ्रांसिसी शिक्षक सैमुअल पैटी के सिर कलम की घटना ने फ्रांस के लोगों को कट्टरपंथ के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के लिए उकसा दिया है और इमैनुएल मैक्रॉन की सरकार ने इस घटना के बाद कट्टरपंथ के खिलाफ मोर्चा खोल चुकी है।

जैसे ही फ्रांस सरकार ने इन इस्लामिक कट्टरपंथियों के खिलाफ बोलना शुरू किया, वैसे ही दो आतंकी देश यानि पाकिस्तान और तुर्की फ्रांस की कड़ी आलोचना करने लगे।

यह तब और बढ़ गया जब एर्दोगन ने इमैनुएल मैक्रॉन को मानसिक रूप से अस्थिर कह दिया और फ्रांसिसी उत्पादों का बहिष्कार करने का आह्वान करने लगे। इस कारण इन कट्टरपंथियों के खिलाफ अब फ्रांस में विरोधी भावनाएं और बढ़ गई हैं।

यह एक दिलचस्प बात है कि एर्दोगन ने अपने पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए “डर” को मुद्दा बनाया जिसके कारण कुछ सदी पहले नए-नए इस्लाम में परिवर्तित देश तुरंत इस्लाम के खतरे में होने की बात पर एर्दोगन के झांसे में आ गए और फ्रांस के खिलाफ सड़कों पर उतर गए। यह पाकिस्तान बांग्लादेश, इंडोनेशिया और अन्य मुस्लिम आबादी वाले देशों में लोग बड़ी संख्या में फ्रांस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए।

यदि हम अरब जगत को देखें तो हमें एक बिल्कुल अलग तस्वीर मिलती है। सउदी अरब और UAE में उस तरह का विरोध प्रदर्शन नहीं देखने को मिला जैसा बांग्लादेश की सड़कों पर लोगों का हुजूम देखने को मिला था। कई अन्य अरब देशों ने दावा किया है कि किसी को भी इस्लाम को आतंकवाद से नहीं जोड़ना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि वे सिर कलम किए जाने की घटना को आतंकवाद के रूप में देखने से इनकार नहीं कर रहे हैं। यह दर्शाता है कि कोरोना को लेकर दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया के देशों के मुसलमानों और पश्चिमी एशियाई देशों के मुसलमानों में कितना अंतर है। इस्लामिक धर्म अपनाने का नया-नया उत्साह और धर्म के प्रति वफादारी सिद्ध करने की लालसा लगी रहती है।

हम इस पैटर्न को कैसे समझ सकते हैं?

अगर ध्यान दिया जाए तो यह समझ आएगा कि जो देश फ्रेश कंवर्ट हैं यानि पिछले 4-5 सदी में इस्लाम के कट्टर समर्थक बने हैं, वे किसी इस्लाम के खिलाफ मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि ईश निंदा के नाम पर हत्या को भी स्वीकार कर लिया जाता है। पाकिस्तान इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है।

अगर हम इसके तर्क और मनोविश्लेषण पर गहराई से गौर करें, तो हम पाएंगे कि पाकिस्तान जैसे देश इस्लाम के प्रति अपनी निष्ठा और इस्लामिक उम्माह का अत्यधिक प्रदर्शन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस्लाम में परिवर्तन के उन्हें अपना इतिहास और संस्कृति को नकार कर नई संस्कृति को अपनाना होता है और अपनी निष्ठा दिखानी होती है। वे मुस्लिम धर्म के प्रति अपनी वफादारी दिखाना आवश्यक समझते हैं।

यह पैटर्न दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र में स्पष्ट है, लेकिन यह सभी यूरोप में भी दिखाई देता है। इस प्रकार, जब हम हाल ही में परिवर्तित मुस्लिम देशों के बारे में बात करते हैं, जहां पहले एक अलग संस्कृति थी तथा जिसे नकार दिया है, वे इस्लाम के खिलाफ किसी भी घटना से अधिक प्रभावित होते हैं।

वर्तमान समय में तुर्की अपने आप को मुस्लिम देशों का नेता की तरह दिखावा कर रहा है और ऐसे देशों को जितना हो सके उतना भड़का कर कट्टरपंथी विचारधारा को फैलाने में लगा है। तुर्की ऐतिहासिक रूप से इस्लामिक उम्माह लीडर रहा है और लंबे समय तक ओटोमन साम्राज्य के खलीफा के वर्चस्व के कारण उसे फायदा हो रहा है और दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई मुस्लिम बहुल देशों जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया पर अधिक प्रभाव पड़ रहा है। इनके लिए कट्टरवाद जैसी कोई चीज़ नहीं होती और ये अतिवाद का समर्थन करते हैं।

यही कारण है कि जब मैक्रॉन ने इस्लामिक कट्टरवाद के खिलाफ हमला बोला और एक्शन लेना शुरू किया तो सबसे अधिक पीड़ा इन्हीं देशों को हुई और ये सभी फ्रांस के खिलाफ हो गए। इन्हें ये लग रहा है कि फ्रांस इस्लाम पर हमला कर रहा है जबकि फ्रांस ने इस्लाम के कट्टरवादी विचारों और उसका समर्थन कर हिंसा और आतंक फैलाने वालों के खिलाफ एक्शन लिया है। ये इस्लाम के प्रति अपनी निष्ठा दिखाने के क्रम में धर्म और अतिवाद का अंतर भूल गए और तुर्की के उकसावे में आ कर फ्रांस के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। एक तरफ जहां सऊदी अरब सुधारों को अपना रहा है तो वहीं तुर्की इन देशों को धर्मांधता के गर्त में ले जा रहा है। अब यह देखना है कि फ्रांस अपने एक्शन में सफल रहता है या तुर्की से संघर्ष का सामना करना पड़ता है।

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