कभी बेस्ट फ्रेंड रहे तुर्की और चीन अब एक दूसरे से लड़ने के लिए मैदान में उतरने वाले हैं

उइगर मुसलमानों

कभी एक दूसरे के दांत काटे दोस्त माने जाने वाले तुर्की और चीन में भी अब शत्रुता के बीज बोये जा चुके हैं। एक समय ऐसा लग रहा था की तुर्की भी चीन का गुलाम बन सकता है, परंतु अब स्थिति उल्टी पड़ चुकी है, और चीन एवं तुर्की के हित अब एक दूसरे को चुनौती दे रहे हैं। वजह अनेक है, लेकिन सबसे प्रमुख कारण है चीन में उइगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार, जिसके कारण अब तुर्की भी आँखें दिखाने को तैयार हो गया है।

परंतु ऐसा क्या हुआ कि कल तक जो तुर्की चीन की हां में हां मिला रहा था, वह आज उसे आँखें दिखा रहा है? अब तक तुर्की आर्थिक मंदी के कारण चीन के मायाजाल में फँसता जा रहा था। एर्दोगन इस्लामिक जगत का खलीफा बनना चाहते हैं, इसके बावजूद वे उइगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों पर वे मौन रहे। स्थिति तो यह हो गई कि उनपर उइगर समुदाय के लोगों को चीन डिपोर्ट करने के आरोप भी लगे।

अब तक अंकारा चीन के फैलाये निवेश के मायजाल में फँसता चला जा रहा था, क्योंकि उसके अर्थव्यवस्था की हालत दयनीय होती जा रही है और उसकी करेंसी लीरा में भारी गिरावट आई है। ऐसे में जनता को खुश करने के लिए एर्दोगन ने ब्याज दर में भी बढ़ोतरी की थी, अब वो राष्ट्रवादी भावना को अपने नागरिकों में जागृत कर अपने खिलाफ पैदा हो रहे गुस्से को कम करने के प्रयासों में जुट गये हैं।

परंतु आखिर खलीफा बनने के ख्वाब कब तक चीन की जी हुज़ूरी में बैकसीट लेता? लिहाजा अब चीन को तुर्की ने भी चुनौती देते हुए यूएन की आम सभा में उइगर मुसलमानों के सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान की रक्षा के लिए आवाज़ उठाई है। यूएन में तुर्की ने अपने राष्ट्रीय सम्बोधन के अनुसार, “हम यूएन द्वारा शिंजियांग में उइगर तुर्क और अन्य मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध लिए जा रहे एक्शन का सम्मान करते हैं, और इसे बेहद अहम मानते हैं”।

तुर्की की ओर से ये नया दांव निश्चित ही चीन को फूटी आँख नहीं सुहाने वाला है। चाहे उइगर मुसलमानों के लिए concentration camps चलाने हो, उइगर महिलाओं का शोषण करना हो, या फिर लोगों की ज़बरदस्ती नसबंदी करवानी हो, सब चीन के लिए महज एक अंदरूनी मामला है। चीन का मानना है कि दुनिया को इस मामले पर चूँ तक नहीं करना है, लेकिन सांस्कृतिक रूप से उइगर समुदाय से जुड़े होने के कारण अब तुर्की बीजिंग की और खुशामद नहीं कर सकता।

लेकिन तुर्की ने यह निर्णय केवल एर्दोगन की खलीफा बनने के ख्वाबों को धार देने के लिए नहीं है, अपितु मध्य एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव को भी रोकने के लिए किया है। इस समय तुर्की अज़रबैजान और आर्मीनिया की लड़ाई में टांग अड़ाने में लगा हुआ है। लेकिन इसी के साथ-साथ तुर्की मध्य एशिया में जाने अंजाने चीन के बढ़ते प्रभाव में भी सेंध लगा रहा है।

तुर्की के दक्षिण Caucasus अभियान के पीछे एक प्रमुख कारण भी है। दरअसल, इसी विषय पर TFI पोस्ट ने अपनी एक पुरानी रिपोर्ट में प्रकाश डाला था, जिसमें लिखा गया था, “तुर्की के लिए वर्तमान लड़ाई के पीछे मध्य एशिया का लिंक भी है। तुर्की मध्य एशिया तक प्रत्यक्ष रूप से नहीं पहुंच पाता, और उसके सपने के बीच में आर्मीनिया और Nagorno Karabakh के क्षेत्र आते हैं। आर्मीनिया पर हमला कर Nagorno Karabakh क्षेत्र पर कब्जा जमाना एर्दोगन के खलीफा बनने के प्लान का ही हिस्सा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि तुर्की और मध्य एशिया को जोड़ने के लिए कोई स्पष्ट लिंक नहीं है, और दोनों क्षेत्रों में संबंध स्थापित करने में कथित रूप से आर्मीनिया और Nagorno Karabakh क्षेत्र के आड़े आ रहे हैं”।

अब ऐसे में तुर्की द्वारा उइगर मुसलमानों का मुद्दा उठाना इस मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना होगा, जो चीन कतई नहीं चाहेगा। इसके अलावा मध्य एशिया में पहले ही उइगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों को लेकर वहां स्थित अनेकों देशों में चीन के प्रति काफी रोष है। लेकिन तुर्की द्वारा आक्रामक रुख अपनाने से अब चीन के लिए मुसीबत चौगुनी होने लगेगी। ऐसा इसलिए क्योंकि तुर्की के प्रभाव में वृद्धि चीन द्वारा मध्य एशिया में रूस के प्रभाव को कम करने के अरमानों पर भी पानी फेरेगा, और इसके अलावा तुर्की द्वारा उइगर मुसलमानों के अत्याचार के मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण भी होगा।

अब तुर्की और चीन के साम्राज्यवादी हित ही एक दूसरे के बीच तनातनी का कारण बन रहे हैं, जिसमें उइगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार भी एक अहम भूमिका निभा रहे हैं। यदि स्थिति जल्द न सुधरी, तो जल्द ही चीन और तुर्की के बीच घमासान युद्ध देखने को भी मिल सकता है।

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