चीन की अर्थव्यवस्था लगातार गिरती जा रही है। विदेशी निवेशक चीन से अपना पैसा समेट कर निकाल रहे हैं। ऐसे में चीन अपने बाजारों को खोलने और विदेशी निवेशकों के प्रति नर्म रवैया दिखाने में जुटा हुआ है। इसका मतलब ये नहीं है कि चीन उदार हो गया है। दरअसल, ये उसकी मजबूरी है क्योंकि उसके पास अमेरिकी डॉलर्स की लगातार कमी होती जा रही है। इसलिए अब वो निवेशकों को लुभाने के लिए मजबूर होकर ये कदम उठा रहा है जिससे पता चलता है कि उसके लिए आने वाला समय धीरे-धीरे बुरा ही होगा।
दरअसल, चीन में ये मंदी अभी नहीं आई है, बल्कि ये काफी लंबे समय से जारी है। साल 2015 में जब चीन ने आर्थिक मंदी के चलते अपने विदेशी मुद्रा भंडार का करीब एक ट्रिलियन डॉलर युआन को मजबूत करने के लिए खर्च किया था। तब ही उसकी विदेशी मुद्रा भंडार की कीमत काफी घट गई थी। 2014-15 का ये भंडारण 2017 तक 3 ट्रिलियन यूएस डॉलर्स का ही रह गया था। जिससे चीन की अर्थव्यवस्था झटका खा गई थी।
इसके बाद जब ट्रंप ने अमेरिकी सत्ता संभाली तब से ही अमेरिका ने चीन पर धड़ाधड़ आर्थिक हमले शुरू करते हुए ट्रेड वार का ऐलान कर दिया जिसके चलते चीन इस आर्थिक मंदी से कभी उबर ही नहीं सका। वहीं कोरोनावायरस के कारण तो चीनी अर्थव्यवस्था की कमर ही टूट गई जिसकी बड़ी वजह भारत समूत कई देशों द्वारा उसके उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगाना रहा। जबकि चीन के एक्स्पोर्ट को ही उसकी आय का सबसे बेहतरीन स्त्रोत माना जाता है।
यही नहीं चीन ने जो विदेशों में निवेश किया है उसका भी उसे कोई खास लाभ नहीं हो रहा है और उसे उन देशों से भी नुकसान के कारण अपना बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ रहा है। अफ्रीकी देश चीन की चल रही पाइपलाइन से जुड़ी योजनाओं पर पुनर्विचार कर रहे हैं जिसके चलते चीन की मुसीबतें बढ़ सकती हैं। इन सब कारणों के चलते चीनी केन्द्रीय बैंकों का एनपीए तेजी से बढ़ रहा है। वैश्विक आपूर्ति को पूरा करना ही चीनी अर्थव्यवस्था का आधार है और इसके चलते कई महत्वपूर्ण देशों के क्वाड जैसे समूहों द्वारा चीन को मिल रही चुनौतियां उसकी परेशानी का सबसे बड़ा सबब है। अमेरिका, जापान या फिर ऑस्ट्रेलिया सभी भारत के साथ मिलकर चीन की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ रहे हैं क्योंकि ये देश वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के महत्त्वपूर्ण बिंदु हैं और इनके द्वारा लगातार चीन का बहिष्कार होना चीन के लिए चिंताजनक है।
बीआरआई प्रोजेक्ट अब उसके लिए विदेश नीति के कारण चिंता का सबब है। व्यापारिक कॉरिडोर बनाने की मंशा के चक्कर में चीन को अब अनेक देशों से नकारात्मक प्रतिक्रिया मिल रही हैं। भारत और चीन दोनों ही दक्षिण एशिया में एक दूसरे के विरोधी बनते जा रहे हैं तो दूसरी ओर जापानी कंपनियां अब चीन को टाटा करके अपना व्यापार समेट रही हैं और भारत समेत अन्य देशों में निवेश कर रही है। चीन से निवेशकों का दूर जाना हो या अमेरिका में ट्रंप का दोबारा राष्ट्रपति बनने की संभावना। ये सभी चीन के लिए मुश्किलें ही बढ़ा रहे हैं क्योंकि पिछली तिमाही में निवेशकों ने करीब 3.6 बिलियन डॉलर तक के शेयर बेचे हैं और ये बदस्तूर जारी है। इसकी वजह ट्रंप की जीत की संभावनाओं और उनके चीन विरोधी होने क़ो माना जा रहा है। वहीं, ट्रम्प चीन को ही कोरोनावायरस के फैलने की वजह मानते हैं, ऐसे ही बिंदु चीन को दिन रात परेशान कर रहे हैं।
ऐसे में निवेशकों को लुभाने के लिए उदारता दिखाना चीन की मजबूरी है। बैंकों का बढ़ता एनपीए और उसका लगातार गिरता विदेशी मुद्रा भंडारण उसे डरा रहा है जो कि उसकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ सकता है।