कांग्रेस बिहार में अपनी एंटी-सवर्ण छवि सुधारने में जुटी, पर ये कदम कांग्रेस को भारी पड़ने वाला है

आधी छोड़ पूरी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे !

सवर्णों

सवर्णों

बिहार चुनावों में अपने उम्मीदवारों को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां धर्म-जाति से जुड़े दांव खेल रही हैं। इसी तरह कांग्रेस भी अपनी जातिगत रणनीति पर काम करते हुए प्रत्याशियों को मैदान में उतार चुकी है लेकिन कांग्रेस को लेकर ये बात भी सामने आई है कि वो अपने पुराने कोर वोटरों पर ज्यादा फोकस कर रही है और इसीलिए इस बार उसने करीब 50 प्रतिशत सवर्णों को अपना उम्मीदवार बना लिया है। कांग्रेस को लेकर ये भी कहा जा रहा है कि सवर्णों के चक्कर में वो अपना परंपरागत मुस्लिम वोटर ही न खो दे, जो कि उसके लिए एक तगड़े झटके से कम नहीं होगा।

बिहार चुनावों को लेकर आरजेडी  के साथ गठबंधन में कांग्रेस के हिस्से मात्र 71 सीटें आई है। ये एक महत्वपूर्ण बात है कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का आज कद इतना घट गया है कि उसे बिहार की ही एक क्षेत्रीय पार्टी से भी कम सीटें मिली हैं। इन 71 सीटों में कांग्रेस ने अपना पूरा गणित बिठाकर एक बार फिर सवर्णों वाले दांव को चल दिया है। दरअसल, कांग्रेस ने इन चुनावों में 71 में से 34 सीटों पर केवल सवर्णो को टिकट दिया है। गौरतलब है कि इसके जरिये कांग्रेस अपर कास्ट बहुसंख्यकों को साधने की कोशिश कर रही है।

पुराने फार्मूले पर कांग्रेस

एक वक्त था जब कांग्रेस के साथ उसका सवर्ण वोटर खड़ा रहता था लेकिन पार्टी की प्रो-मुस्लिम छवि भारी पड़ी है, इसीलिए वो इस बार अपने पुराने दांव को चल रही है। इसके अलावा कांग्रेस ने इस बार मुस्लिमों को भी कम टिकट दिए हैं क्योंकि इसके जरिए वो बहुसंख्यकों के मन में ये धारणा बनाना चाहती है कि वो प्रो-मुस्लिम नहीं है। हम आपको अपनी रिपोर्ट में पहले ही बता चुके हैं कि कांग्रेस ने किस तरह अपनी छवि को बदलने के लिए प्रयास किए हैं। कांग्रेस ने अपने इस टिकट वितरण में दलित-मुस्लिम वाला कार्ड तो खेला है लेकिन वो भी केवल उसके पुराने ढर्रे की राजनीतिक झलक ही है। सवर्णों को ज़्यादा टिकट देने से कांग्रेस के मुस्लिम वोटर नाराज हो सकते हैं।

इस पूरे मसले को लेकर ये भी सामने आया है कि कांग्रेस ने अपने किसी भी विधायक का टिकट नहीं काटा है जो दिखाता है कि कांग्रेस पुराने नेताओं पर ही टिकी हुई है। इसके अलावा जिन युवा चेहरों को टिकट दिया गया है वो सभी किसी न किसी भूतपूर्व विधायक या सांसद के परिजन हैं जो कि एक सवाल खड़ा करता है कि पार्टी के जमीनी स्तर पर भी परिवारवाद किस हद तक अपनी जड़े फैला चुका है।

गठबंधन का फायदा

भले ही गठबंधन की राजनीति से किसी एक दल को नुकसान होता है लेकिन इन चुनावों में कांग्रेस इससे भी लाभ लेने के जुगाड़ में है। कांग्रेस ने 13 दलित समुदाय के उम्मीदवारों को टिकट तो दिया है लेकिन वो ये बात अच्छे से जानती है कि आरजेडी के दलित वोटों का लाभ उसे ही होगा। इस बार कांग्रेस ने अपना पूरा फोकस बहुसंख्यकों पर कर रखा है जिससे वो राष्ट्रीय राजनीति में भी एक मैसेज दे सके।

बिहार की राजनीति में कांग्रेस सवर्णों पर दांव खेल रही है लेकिन सवर्णों को मात्र टिकट देने से ही सवर्णों के वोट कांग्रेस को चले जाएंगे, ये एक बचकानी सोच से ज़्यादा और कुछ नहीं है क्योंकि सवर्ण किसी समय में उसके कोर वोटर थे लेकिन अब ये सारा वोटबैंक बीजेपी के पास है। बीजेपी ने इस पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली है क्योंकि बिहार की राजनीति में सवर्णें के बीच ये बड़ा संदेश जा चुका है कि कांग्रेस एक मुस्लिम समर्थक पार्टी है और कई बार कांग्रेस ने अपने कुछ कदमों से सवर्णों को नाराज भी किया है । अब कांग्रेस इसी सवर्ण विरोधी छवि को सुधारने के लिए सवर्णों को लुभाने का प्रयास कर रही है।

सेल्फ गोल की कोशिश

दरअसल, कांग्रेस का यह फैसला उसके लिए एक सेल्फ-गोल साबित हो सकता है क्योंकि सवर्णों का वोट तो उसे मिलना मुश्किल है लेकिन सवर्ण समर्थक छवि बनाकर कांग्रेस अपने कोर मुस्लिम वोटरों को नाराज कर रही है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि उसका अपना ही वोटर उसका साथ छोड़ दे जिससे पार्टी यहां अधर में लटक जाएगी. वास्तव में कांग्रेस को अपने वफ्दार मुस्लिम मतदाताओं पर अपनी पकड़ और मजबूत बनाने पर काम करना चाहिए था. ऐसा इसलिए क्योंकि ये मुस्लिम वोटर बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए महागठबंधन को ही वोट देंगे और कांग्रेस इससे अपना वोट शेयर बढ़ा सकती थी।

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