बिहार के आबाद होने से लेकर बर्बाद होने तक की यात्रा का प्रतीक है जेपी आंदोलन

देश की राजनीति की दिशा को बदलने वाला बिहार, खुद को क्यों नहीं बदल पाया?

जेपी आंदोलन

जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो।

समाज के प्रवाह को नयी दिशा में मोड़ दो।

5 जून 1974 पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में एक महासभा में यह नारा गूंज रहा था। यह समाज में आने वाले उस परिवर्तन की आवाज थी। जिसकी बुनियाद जयप्रकाश नारायण रख रहे थे। यह महासभा कोई आम सभा नहीं थी बल्कि इंदिरा गांधी की दमनकारी नीतियों के खिलाफ एकजुट हुई बिहार की जनता थी , जिसके सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान ने केंद्र सरकार की चूलें हिला दी थी।

’’सम्पूर्ण क्रांति से मेरा तात्पर्य समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है |’’
– लोकनायक जय प्रकाश नारायण (pc- patrika)

बिहार में जब आपातकाल के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत हुई तो किसी को भी ये नहीं पता था कि यह आंदोलन कहाँ जाकर खत्म होगा। इस एक आंदोलन ने बिहार की आज तक की राजनीति को बदल कर रख दिया है। यह आंदोलन उस दौर में शुरू हुआ जब बिहार में काँग्रेस की सरकार थी, क्षेत्रीय पार्टियों का उभार तब तक नहीं हुआ था। उस वक्त काँग्रेस एक मजबूत और जनाधार वाली काँग्रेस हुआ करती थी। इंदिरा गांधी के घमंड को बिहार ने ऐसा चकनाचूर किया कि तब से अब तक बिहार में काँग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के अधीन ही रही।

उस दौर में जब काँग्रेस खत्म हो रही थी, अपने जनाधार को खो रही थी तब बिहार में एक नई राजनीतिक सुचिता आकार ले रही थी। बिहार में छात्रों के नेतृत्व में राजनीति की जमीन पर बिल्कुल एक नई पौध तैयार हो रही थी, जो आने वाले कई वर्षों तक बिहार के साथ-साथ देश को भी बदलने का माद्दा रखने वाली थी परंतु कुछ घटनाओं ने बिहार की राजनीतिक जमीन की उर्वरकता को छीन लिया।

इंदिरा सरकार को हटाने के बाद जनता पार्टी के बैनर तले जाति,पंथ की भावना से इतर जब सरकार बनी तो चंद नेताओं के निजी स्वार्थ ने उस गठबंधन को तार-तार कर दिया। उस जनता पार्टी से अनेकों नेता अलग होकर अपनी जाति को केंद्र में रखकर अपनी पार्टियों की स्थापना कर दी। जिसमें बिहार में लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे नेताओं का उदय हुआ जो एक खास जाति और वर्ग के नेता बने रहें। उसके बाद भी सवर्णों का झुकाव काँग्रेस की तरफ बना रहा। बहुजन केंद्रित राजनीति ने बिहार में जाति आधारित पार्टियों को गुना भाग कर के सरकार बनाने का मौका दे दिया। यहाँ जनता दल से आए हुए सभी नेताओं को फायदा जरूर हुआ परंतु यदि नुकसान किसी का हुआ तो वह बिहार की जनता ही थी।

1961 में श्रीकृष्ण सिंह के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद 1990 तक क़रीब तीस सालों में 23 बार मुख्यमंत्री बदले और पाँच बार राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। क्षेत्रीय पार्टियों के उदय होने के कारण बिहार में काँग्रेस की जमीन खिसकती ही चली गई। जिन 23 मुख्यमंत्रियों की यहाँ बात हो रही है उसमें से 17 तो सिर्फ काँग्रेस के थे जो यह दिखाता है कि बिहार की राजनीति कैसे करवट ले रही थी।

वर्ष 1989 में जब केंद्र में वीपी सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में जनता दल सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया तो बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान उसके सबसे बड़े समर्थकों में से थे। इसी के बाद बिहार में लालू प्रसाद यादव का उदय होता है। जो 1990 में मुख्यमंत्री बनते हैं और लगभग 1997 तक कुर्सी उनके पास बरकरार रहती है ,जब चारा घोटाला सामने नहीं आता है। उसके बाद वे खुद हटकर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप देते हैं। यह बिहार की राजनीतिक चेतना पर एक जोरदार तमाचे की तरह था, जहां जाति के आगे प्रभावी राजनीति ने घुटने टेक दिये थे।

वर्ष 1990 के आसपास एक आंदोलन और उठ रहा होता है, जिसे मंदिर आंदोलन की संज्ञा दी गई थी, यह वही आंदोलन था जिससे हिन्दी पट्टी में भाजपा का उदय हो रहा होता है। यह बिहार के लिए एक नई बात थी, बिहार जिसने राष्ट्रीय पार्टी (काँग्रेस) को नकारकर ही वर्तमान की राजनीति स्थापित की थी उस बिहार में एक अन्य राष्ट्रीय पार्टी नए कलेवर के साथ आ रही थी। साथ ही साथ बिहार में नीतीश कुमार के साथ गठबंधन में आकर उसने राज्य की अगड़ी जातियों और ओबीसी के कुछ तबकों के विश्वास को जीत लिया था। काँग्रेस के वोट बैंक में यहाँ सेंधमारी हो चुकी थी। मुस्लिम और यादव जो की बिहार में तकरीबन 25% के आसपास हैं वह लालू यादव के पक्ष में चले गए थे और दलितों के नेतृत्वकर्ता के रूप में रामविलास पासवान उभर रहें थे। धीरे-धीरे बिहार जातीयता के ऐसे दलदल में फँसता चल गया जहाँ से उसे निजात 2005 के चुनावों में मिली। यहाँ आकर सुधारों की एक उम्मीद सी दिखी थी, इस बात को कई पॉलिटिकल पंडित मानते हैं परंतु बिहार वर्षों के इस बुराई से महज कुछ वर्षों में बाहर नहीं निकाल पाया। लेकिन फिर आता है 2014 का वह ऐतिहासिक चुनाव जहां बिहार ने पहली बार जातीयता से उठकर देश के लिए मतदान किया। जाति के सारे बंधनों को तोड़कर बिहार ने बाकी देश के साथ कदम से कदम मिलाकर नरेंद्र मोदी को प्रचंड बहुत दिलाने में अग्रिम भूमिका निभाई। उस चुनाव में बिहार के 40 सीटों में से एनडीए गठबंधन के खाते में 31 सीटें आईं। यह झटका जाति आधारित पार्टियों के लिए सबसे बड़ा झटका था, विशेषकर लालू यादव के लिए। इन सब के बावजूद  बिहार के चुनावी राजनीति को देखकर इतना तो जरूर कह सकते हैं कि बिहार में क्षेत्रीय पार्टियों के उदय ने राजनीति को और लोकतंत्र को एक नया आयाम दिया। यहाँ जातिगत समीकरण साधे गए तो उन जातियों को लोकतंत्र में भागीदारी भी मिली जो की हाशिये पर थी।

जेपी आंदोलन ने बिहार को यदि कुछ दिया है तो उसके बदले में बहुत कुछ लिया भी है। इंदिरा सरकार के चुनावों में हारने के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और महज कुछ वर्षों में ही बिखर गई। इसके बाद वापसी होती है फिर से इंदिरा गांधी की, जो ये मानती हैं कि उनकी सरकार को तहस-नहस यदि किसी ने किया है तो वह बिहार ही है और बिहार इसकी कीमत भी चुकाता है। इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद पंजाब में बड़े स्तर पर कृषि सुधार होते है परंतु बिहार के साथ यह नहीं होता है। न ही बिहार को वो सुविधाएं मिलती हैं जो कि पंजाब को मिली। बिहार की मिट्टी में उर्वरकता पंजाब की मिट्टी से कहीं अधिक थी। गंगा के मैदानी हिस्से में होने के कारण यहाँ संभावनाये भी अपार थी। परंतु उस दोहरे रवैये और बदले की राजनीति की चपेट में बिहार आ गया।

बिहार के मतदाताओं के बारे में अक्सर यह कहते सुना गया है कि ये देश के मूड से अलग चलते हैं। दरअसल, इसके पीछे एक गंभीर वजह है। जब भी 1990 के बाद केंद्र में कोई सरकार रही है तो वह बिहार के विरोध में ही रही है। वीपी सिंह हो या राजीव गांधी, बिहार को हमेशा केंद्र के एक विरोधी के रूप में देखा गया जिसकी कीमत बिहार ने हर मोर्चे पर अपने विकास के साथ समझौते कर के चुकाई। जब लालू मुख्यमंत्री थे तो लालू विरोधी केंद्र में थे जब 2004 में सत्ता मनमोहन सिंह के पास आई तो बिहार में नीतीश कुमार की सरकार आ चुकी थी। यदि कुल मिलाकर हम देखें तो बिहार में महज पिछले तीन वर्षों से ही केंद्र और राज्य दोनों में एक ही सरकार काम कर रही है।

आने वाले दिनों में बिहार एक बार फिर से अपने नेतृत्व को चुनने जा रहा है परंतु बिहार को यह याद हमेशा रहना चाहिए कि राजनीति के प्रति और लोकतंत्र समर्थित व्यवस्था के प्रति उसका दायित्व हमेशा से बढ़कर रहा है। जेपी आंदोलन जैसे एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व कर बिहार ने लोकतंत्र बचाने के साथ-साथ सामाजिक सुधारों को भी जन्म दिया था। आज वही सामाजिक सुधार जातीयता के व्यंग्य में कहीं छिप से गए हैं, जरूरत है तो उसे बाहर निकालने की। जेपी आंदोलन ने बिहार को बहुत कुछ दिया परंतु उतने बड़े आंदोलन की कीमत भी बिहार ने चुकाई है। आज शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सबमें पिछड़ा यह प्रदेश किसे नेतृत्व देता है यह तो वक्त ही बतयाएगा परंतु इसमें कोई शक नहीं कि एक बिहारी जब सम्पूर्ण क्रांति का नारा देता है तो वो महज एक सत्ता को नहीं ललकारता है बल्कि देश को अपने सामर्थ्य का परिचय भी देता है।

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