बिहार में शराब बंदी ने माफिया और इसकी कालाबाजारी को बढ़ावा दिया है, और ये चुनावी मुद्दा होना चाहिए

शराब

बिहार में चार साल पहले शराब बिक्री पर प्रतिबंध लगाया गया था लेकिन ये स्वाभाविक है कि जब ऐसा कोई कदम उठाया जाता है तो उसके साथ ही काला बाजारी का काम भी शुरू हो जाता है। कुछ ऐसे ही शराब माफिया हैं जो बिहार में शराब का काला बाजर चला रहे हैं। बेरोजगार लोग इस तरह की काला बाजारी कार्य पैसे के लालच में काम कर रहे हैं और दूसरे राज्यों से लाकर शराब बेच रहे हैं, जो कि असल में कानून का उल्लंघन है।

इस मामले में एनडीए में शामिल हिंदुस्तान आवाम पार्टी के नेता जीतन राम मांझी ने कहा कि वो सत्ता में आने पर नीतीश कुमार के साथ मिलकर राज्य में शराब बंदी का मुद्दा जरूर उठाएंगे। आज तक से बातचीत में उन्होंने कहा कि शराब पीने वाले गरीबों को जेल में डाल दिया जाता है, जबकि शराब की तस्करी करने वाले लोग मज़े से व्यापार करतें हैं। उन्होंने कहा कि एनडीए के दोबारा सत्ता में आने पर माफियाओं पर लगाम लगाई जाएगी और शराब बंदी को खत्म करने पर चर्चा भी होगी।

गौरतलब है कि मांझी इसे लगातार मुद्दा बनाते रहे हैं क्योंकि जेल में वही गरीब लोग बंद हैं जो शराब पीने के आरोपी थे। इसलिए अब ये मुद्दा विधानसभा चुनाव से पहले भी उन्होंने उठाया है। उन्होंने इस वर्ष बातचीत में कहा था, “मुझे नहीं पता कि वो शख्स नशे में था या नहीं लेकिन हमें इस माफिया राज को खत्म करना चाहिए। शराब दवा के रूप में भी काम करती है। मैंने भी इसे अनुभव किया है। कुछ तरह की शराब लोगों के लिए फायदेमंद भी होती हैं।”

शराबबंदी से कई माफिया करोड़पति बने हैं। गुजरात के अबदुल लतीफ पर आधारित फिल्म रईस भी उसी का उदाहरण है। इस शराब माफिया के जरिए लोग हजारों करोड़ रुपए कमाते हैं, वो सार पैसा जो निश्चित रूप से राज्य के गरीबों और समाज कल्याण के लिए खर्च होना चाहिए था वो कालाबाजारी के जरिए आपराधिक घटनाओं में खर्च होता है। ऐसे ही कई अब्दुल लतीफ अब बिहार में हैं जो गैर-कानूनी तरीके से शराब का माफिया राज चला रहे हैं। चार साल पहले हुई शराब बंदी के कारण राज्य में देशी शराब का व्यापार बढ़ा है जिससे नकली शराब भी बनी है और इसके चलते लोगों की मौतें भी हो रहीं हैं।

फ़र्स्टपोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार, निजी के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र में अवसरों की कमी के कारण बिहार में बेरोजगार युवा इस तरह की काला बाजारी में शामिल हो गए हैं। राजनीतिक विज्ञान से स्नातक 26 वर्षीय अजीत (बदला हुआ नाम) का कहना है कि वह 2013 से नौकरी की तलाश में है। “सरकारी क्षेत्र में रिक्तियों का अभाव है और निजी क्षेत्र में पर्याप्त अवसर भी नहीं हैं,” जिसके चलते वो इस काम को करने के लिए मजबूर हैं। उन्होंने बताया कि वो अब अवैध शराब के वितरक बन गए हैं। जीतन राम मांझी की बदौलत शराबबंदी एक चुनावी मुद्दा बनता जा रहा है क्योंकि इससे राज्य को 4,000-5,000 करोड़ का राजस्व नुकसान हुआ है और साथ ही राज्य के पर्यटन और आतिथ्य उद्योग में बड़े पैमाने पर नौकरियों को भी नुकसान हुआ है।

राज्य को अब्दुल लतीफ जैसे गैंगस्टरों के उदय से बचाने के लिए शराबबंदी को एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनाया जाना चाहिए क्योंकि तब जो भी पार्टी जीतेगी,  वह शराबबंदी अधिनियम में संशोधन के बारे में सोचेगी। शराब बंदी कमजोर न्यायिक बुनियादी ढांचे पर भी अतिरिक्त बोझ डाल रही है। पटना में ही हाइकोर्ट के पास 2 लाख से ज्यादा केस आ गए हैं जो उसके लिए मुसीबत का सबब बन रहे हैं क्योंकि इसके लिए आधारभूत ढ़ांचा मजबूत नहीं है।

इसलिए शराब की बिक्री और खपत पर प्रतिबंध हटाने से न केवल बिहार राज्य को हजारों करोड़ की कमाई होगी, बल्कि इससे न्यायिक अवसंरचना पर भी बोझ कम होगा, जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा। इसीलिए मांझी इसी राह पर हैं कि जो भी पार्टी सत्ता में आती है तो उसे शराब बंदी को खत्म करने की बात शुरू करनी चाहिए।

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