वर्ष 1969 में पहली बार एक विधायक के रूप में एक कांग्रेस-विरोधी मोर्चे के सदस्य के रूप में, एक पुलिस अधिकारी की अपनी नौकरी छोड़ने वाला बिहार के एक सामान्य से परिवार का लड़का कितना बड़ा नेता बन सकता है उसके जीते-जागते उदाहरण राम विलास पासवान थे। जिनका आठ अक्टूबर को निधन हो गया। यह बिहार सहित देश के लिए एक कभी न भरने वाली क्षति है। रामविलास पासवान एक वास्तविक किंगमेकर थे जिन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कभी प्रासंगिकता को समाप्त तो छोड़िए, कम तक नहीं होने दिया।
वर्ष 1946 में बिहार के खगड़िया में जन्मे रामविलास पासवान आठ बार लोकसभा के लिए चुने गए और वर्तमान में राज्यसभा सदस्य थे। आपातकाल के बाद हुए वर्ष 1977 की छठी लोकसभा चुनावों में पासवान जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में रिकॉर्ड मतों से निर्वाचित हुए और फिर वहाँ से उनकी एक किंगमेकर की यात्रा प्रारम्भ हुई।
वर्ष 1982 में हुए लोकसभा चुनाव पासवान दूसरी बार विजयी रहे। 1983 में उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए दलित सेना का गठन किया। वर्ष 1989 में वह तीसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए। तब उन्हें विश्वनाथ प्रताप सिंह की नेशनल फ्रंट की सरकार में केंद्रीय श्रम और कल्याण मंत्री बनाया गया। यह उनके जीवन का ऐसा मोड़ था जहां से उन्होंने अपनी भूमिका केंद्र सरकार में अंगद के पाँव की भांति जमा ली और अपनी अंतिम सांस तक केंद्र सरकार में मंत्री पद पर बने रहे।
वह वीपी सिंह सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रियों में से एक थे और मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी भाषी राज्यों जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति की नींव ही हिला कर रख दी। वह अपने राजनीतिक कद का इस्तेमाल कर नेशनल फ्रंट की अगली दोनों सरकारों में भी प्रासंगिक बने रहे और एक तरह से किंग मेकर की भूमिका निभाते रहे।
वर्ष 1996 आते आते तो उनकी कद इतनी बढ़ गया थी कि वह लोकसभा में सत्तारूढ़ गठबंधन का नेतृत्व भी करने लगे थे क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री राज्य सभा के सदस्य थे। यह वह वर्ष भी था जब पासवान पहली बार केंद्रीय रेल मंत्री बने थे। उन्होंने उस पद को वर्ष 1998 तक संभाला।
इसके बाद सरकार बदली और रामविलास पासवान ने भी अपनी रुख में बदलाव किया और फिर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को समर्थन कर सरकार बनाने में अपनी प्रासंगिकता दिखाई। एक-एक वोट से सरकारों के गिरने के समय में राम विलास पासवान की कितनी अहमियत थी यह सरकार बनाने वाले को ही पता था। अपने इसी समर्थन से वह वर्ष 1999 से 2001 तक केंद्रीय संचार मंत्री बनाए गए थे। उसके बाद उसी सरकार में उन्हें कोयला मंत्रालय में स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसे उन्होंने 2002 तक संभाला।
राम विलास ने जनता दल से अलग होते हुए अपनी एक नई पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी बनाई और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। LJP ने शुरू में BJP की NDA सरकार का समर्थन किया लेकीन धीरे-धीरे माहौल को देखते हुए उन्होंने NDA से दूर होना शुरू किया और फिर गठबंधन से ही निकल गए। देश में राजनीतिक लहर देखते अगले आम चुनावों में अपनी नई नवेली पार्टी LJP को उतारा और चार सीटें जीतने में कामयाब रहे।
एक बार फिर से वह ऐसी स्थिति में थे की वह सरकार में शामिल होने और मंत्री पद पाने में कोई कठिनाई नहीं होती। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों के बाद, चुनावी हवा को देखते हुए एक बार फिर से पासवान ने जीतने वाली UPA की सरकार में शामिल हो गए और तब उन्हें रसायन और उर्वरक मंत्रालय और इस्पात मंत्रालय में केंद्रीय मंत्री बनाया गया।
वहीं वर्ष 2005 के बिहार में हुए विधानसभा चुनावों में पासवान ने अपनी सियासी ताकत को परखने के लिए अकेले चुनाव लड़ा। एलजेपी 178 सीटों पर अपने उम्मीदरों को उतारा जिसमें उन्हें 29 सीटों पर सफलता हाथ लगी।
इस चुनाव में बिहार में किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला था और ऐसे में पासवान किंगमेकर बनकर उभरे। परंतु उस दौरान उन्होंने न तो लालू यादव को समर्थन दिया और न ही भाजपा और JDU की गठबंधन वाले NDA को। उस दौरान सरकार ही नहीं बन सकी और राज्यपाल को दोबारा चुनाव कराने पड़े जिसमें NDA ने सभी पार्टियों का सुपड़ा साफ कर दिया था।
हालांकि, वर्ष 2009 में UPA के भीतर भी उनकी कांग्रेस से ठन चुकी थी जिसका खामियाजा उन्हें अगले आम चुनावों में अपनी ही सीट हार कर चुकाना पड़ा। लेकिन केंद्रीय राजनीति में उनकी भूमिका अभी समाप्त नहीं हुई थी।
2009 के भारतीय आम चुनाव के लिए पासवान ने कांग्रेस को छोड़ लालू प्रसाद यादव और उनके राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन किया। उसके उस गठबंधन में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को भी शामिल कर लिया गया और उन्हें Fourth Front बनाया। परंतु उस दौरान उन्हें एक भी सीट पर जीत नहीं मिली। हालांकि, वह अगस्त 2010 में राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और कार्मिक तथा पेंशन मामले और ग्रामीण विकास समिति के सदस्य बनाए गए। उस दौरान भी वह कई मुद्दो पर कांग्रेस की यूपीए सरकार को समर्थन देते रहे।
ऐसा कहा जाता है कि वर्ष 2014 में लालू प्रसाद के कारण लोजपा को यूपीए छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि RJD लोक जनशक्ति पार्टी को लोकसभा चुनाव में तीन से अधिक सीटें नहीं देना चाहती थी। इसका फायदा लोजपा को ही हुआ और उसी वर्ष के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ हाथ मिलाने के बाद एलजेपी को एक नई ऊर्जा मिली। वर्ष 2014 के चुनावों में एक बार फिर से 6 संसदीय सीटें जीतकर पासवान ने अपनी प्रासंगिकता को खोने नहीं दिया और केंद्र की राजनीति में मंत्री बन गए।
पासवान ने पांच अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के साथ एक केंद्रीय मंत्री के रूप में कार्य किया है और 1996 से 2019 गठित सभी मंत्रिपरिषद में लगातार अपनी मृत्यु तक अपना स्थान बनाए रखा था।
सभी राष्ट्रीय गठबंधन जिन्होंने 1996 से 2015 तक सरकार का गठन किया, चाहे वो NDA का हो या UPA का हो, रामविलास पासवान सभी का हिस्सा थे जो किसी रिकॉर्ड से कम नहीं है।
यह उनकी खासियत ही थी कि अटल बिहारी और सोनिया गांधी जैसे दो कट्टर प्रतिद्वंदीयों ने बारी-बारी से उनका स्वागत किया। एक राजनेता के रूप में उनके मूल्य और पार्टियों में उनकी स्वीकृति कभी समाप्त नहीं हुई और उन्होंने एक मूल्यवान मंत्री के रूप में कार्य किया।
रामविलास पासवान ने LJP के लिए एक मजबूत आधार और पार्टी संगठन को पीछे छोड़ा है जो अब पूरी तरह से उनके बेटे चिराग पासवान की कमान में है। उन्हें हमेशा के लिए याद किया जाएगा, क्योंकि उन्होंने जीते जी अपनी प्रासंगिकता नहीं खोई। वह भारतीय राजनीति के इतिहास में सबसे सफल राजनेताओं में से एक तथा वास्तविक किंगमेकर गिने जाएंगे जिनके स्थान की भरपाई नामुमकिन है।