भाड़े के सैनिक- कैसे पाकिस्तान और तुर्की मध्यकालीन मानसिकता को 21वीं सदी में भी घिसते चले जा रहे हैं

दुनिया में कहीं भी झगड़े हों,वहाँ ये दोनों मिल ही जाएंगे..

तुर्की

पिछले एक वर्ष में मिडिल ईस्ट में काफी तनातनी फैल रही है, चाहे वह Nagorno Karabakh के क्षेत्र में हो, या फिर यमन और सीरिया में चल रहे गृह युद्ध ही क्यों न हो। दिलचस्प बात तो यह है कि इन सभी झड़पों में तुर्की की एक अहम भूमिका भी है, और अब ये बात भी सामने आ रही है कि मध्यकालीन युग की भांति ही तुर्की और पाकिस्तान जैसे देश अपने सैनिकों को दूसरों के युद्ध लड़ने के लिए भेज रहे हैं।

एक ओर जहां तुर्की भाड़े के सीरियाई जिहादियों को अपने उद्देश्य के लिए इस्तेमाल कर रहा है, तो वहीं पाकिस्तान अपनी खुद की सेना का दुरुपयोग करने को तैयार है। लीबिया हो, कुर्दिस्तान हो, सीरिया का इडलिब क्षेत्र हो या फिर Nagorno Karabakh क्षेत्र ही क्यों न हो, हर जगह इन दोनों देशों के भाड़े के लड़ाकू स्थिति को और भड़काते हुए दिख रहे हैं।

सीरियाई आतंकियों की भूमिका तब सामने आई, जब पिछले वर्ष एर्दोगन ने कुर्द समुदाय के नियंत्रण में आने वाले उत्तर पूर्वी सीरिया पर धावा बोला। इस्लामिक स्टेट के विरुद्ध लड़ने वाले कुर्द बागियों के विरुद्ध जघन्यतम अपराध को अंजाम देने में शामिल तुर्की और उसके निर्देश पर काम करने सीरियाई जिहादियों का यह अभियान केवल कुर्दिस्तान तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु ये लीबिया और Nagorno Karabakh के क्षेत्र तक भी पहुँच चुका है।

ORF की रिपोर्ट के अनुसार, सीरियाई जिहादी जो इस समय Nagorno Karabakh की झड़प में सम्मिलित हैं, लीबिया में लिप्त सीरियाई जिहादियों की तरह कट्टर नहीं है। पर यहीं पर मध्यकालीन युद्धनीति की असलियत सामने आती है। Nagorno Karabakh में लड़ने वाले लोगों के लिए जिहादियों के लिए ऐसी लड़ाई लड़ने का अर्थ है कि उनके परिवार वालों को पैसे मिलते रहेंगे, और इसीलिए वे अंकारा के लिए कुछ भी करने को तैयार है।

तुर्की के लिए भी यह सौदा बहुत फायदेमंद है। एक तो जिहादियों को भेजने से तुर्की की अपनी सेना को कोई नुकसान नहीं होगा, और दूसरा अंकारा को सीरियाई जिहादियों पर कम पैसा बहाना होगा। लेकिन इस पूरे प्रकरण में अब Nagorno Karabakh के एक आतंकी क्षेत्र बनने का खतरा उमड़ पड़ रहा है, क्योंकि तुर्की के वर्तमान प्रशासन के स्वभाव को देखते हुए ये कतई नहीं कहा जा सकता है कि वे इतने पे ही रुक जाएंगे।

वहीं दूसरी ओर तुर्की को अपना भाग्यविधाता मानने वाला पाकिस्तान तो इस मामले में एक कदम आगे निकल गया है। चूंकि पाकिस्तान के पास तुर्की की तरह भाड़े के लड़ाकू नियुक्त करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं है, इसलिए वह खुद के सैनिक मोर्चे पर भेज रहा है।

पिछले वर्ष मालूम हुआ था कि ईरान द्वारा समर्थित Houthi लड़ाकों के विरुद्ध सऊदी अरब द्वारा लड़े जा रहे यमन गृह युद्ध में पाकिस्तानी सेना के पूर्व अफसर भी शामिल थे। इन लड़ाकों का नेतृत्व करने वाले कोई और नहीं, बल्कि पाकिस्तान के पूर्व सैन्य प्रमुख जनरल राहील शरीफ थे। हालांकि, तुर्की के साम्राज्यवादी नीतियों के उलट पाकिस्तान का उद्देश्य कुछ और ही था। उसे अपनी चरमराती अर्थव्यवस्था के लिए पैसे जो जुटाने थे।

लेकिन ये कोई नई बात नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान की बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना होने की नीति कई दशक पुरानी है। 1967 में जब पाँच अरबी देशों ने मिलकर इज़राएल पर हमला किया था, तो उनकी मदद के लिए पाकिस्तान ने भी अपने वायुसेना के कई फाइटर प्लेन मोर्चे पर तैनात किए थे। उसी नीति का अनुसरण करते हुए Nagorno Karabakh क्षेत्र में चल रही तनातनी के बीच तुर्की और अज़रबैजान को समर्थन देने के लिए कथित तौर पर अपनी सेना को भी भेजा है। ऐसे में एक बार फिर पाकिस्तान और तुर्की मध्यकालीन युग के सल्तनतों की भांति मिडिल ईस्ट को श्मशान बनाने के इरादे से अपने लड़ाके भेज रहे हैं, जो आने वाले समय में दोनों देशों के अस्तित्व के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हो सकता है।

 

 

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