देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को लेकर ये धारणा है कि पार्टी जब भी सत्ता से बाहर होती है तब उसमें अस्थिरता के साथ फूट की स्थिति आती है। पिछले 6 वर्षों से लगातार हो रही हार के बाद कांग्रेस और गांधी परिवार उसी फूट के मुहाने पर खड़ा है। पिछले लगभग 30 सालों में जब भी ऐसी स्थिति आई है तो कांग्रेस को मजबूती देने में पार्टी के वरिष्ठतम नेता अहमद पटेल की भूमिका सबसे अहम रही है लेकिन अहमद का अचानक निधन कांग्रेस के लिए एक सबसे बड़ी क्षति के तौर पर देखा जा रहा है जिसके चलते अब ये कहा जाने लगा है कि कांग्रेस के संकटमोचक अहमद पटेल के जाने के बाद कांग्रेस और गांधी परिवार की असल मुसीबत अब शुरू होगी।
अहमद पटेल जो पिछले काफी समय से कोरोनावायरस से जूझ रहे थे, उन्होंने हाल के राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र की सत्ता का रास्ता साफ करके अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया था। साल 2019 में विधानसभा चुनाव के बाद धुर-विरोधी विचारधारा वाली शिवसेना के साथ गठबंधन का मौका तो आया लेकिन तथाकथित सेकुलर फ्रंट का जनाधार घटने का डर भी साथ लाया। ऐसी स्थिति में कांग्रेस ने अहमद पटेल को त्वरित रूप से महाराष्ट्र भेजा, और परिणाम आज सामने हैं कि महाराष्ट्र में चल रही महाविकास आघाड़ी की उद्धव सरकार में कांग्रेस की अहम भूमिका है।
महाराष्ट्र तो केवल एक सतही उदाहरण की तरह ही है। अहमद कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी के शुरू से ही राजनीतिक सलाहकार रहे हैं। ऐसे में ये कहा जाता है कि सोनिया गांधी ने अपने पूरे राजनीतिक कार्यकाल में जो भी निर्णय लिए उसके पीछे अहमद पटेल की भूमिका सबसे अहम थी। पार्टी में नेताओं की नियुक्ति से लेकर अधिसंख्य फैसले तो केवल अहमद के ही जिम्मे थे। 2004 से 2014 तक यूपीए शासनकाल को अहमद का राजनीतिक स्वर्ण काल कहा जाता है। अहमद की इस यूपीए शासनकाल को हासिल करने में मेहनत भी बेहद खास थी। स्थिति ये थी कि कई बार जब पार्टी के कुछ फैसले अहमद की राय से इतर लिए गए तो पार्टी को नुक़सान ही हुआ, जिससे अहमद का महत्व पार्टी में और बढ़ता गया।
यूपीए सरकार में अनेक राजनीतिक दलों के साथ समन्वय स्थापित करने से लेकर उन्हें उनकी सही जगह दिखाने में सबसे बड़ी भूमिका अहमद की ही थी। पार्टी में जब भी नेतृत्व की कमी खली या फूट की स्थिति बनीं, तो अहमद ने उसे संभालने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुजरात में राज्यसभा चुनाव के दौरान भी ये बात देखने को मिली थी, कि पार्टी और अपनी जीत के सुनिश्चित हो जाने तक अहमद ग्राउंड जीरो पर थे। यही नहीं, जब सोनिया सक्रिय राजनीति में नहीं थीं तो कांग्रेस और गांधी परिवार के बीच संबंधों का पुल बांधे रखने वाले नेताओं में अहमद की भूमिका ही सबसे अधिक थी।
आज कांग्रेस की स्थिति पहले ही बुरी है, बिहार चुनावों की शर्मनाक हार के बाद कपिल सिब्बल से लेकर गुलाम नबी आजाद जैसे कद्दावर नेता कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं। जमीनी स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर नेता कांग्रेस की कार्यसमिति समेत पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन की मांग कर रहे हैं। जिसके चलते अब कांग्रेस में एक दो या चार नहीं चार सौ धड़े बन चुके हैं। पार्टी में कोई ऐसा सर्वमान्य नेता नहीं दिखता जिसके पीछे चलकर कार्यकर्ता पार्टी को मजबूती की ओर ले जाएं वहीं गांधी परिवार की स्थिति और बुरी है।
कांग्रेस में अध्यक्ष पद को लेकर चुनाव की बात हो रही है। सोनिया गांधी उम्र की उस कगार पर है, जहां उन्हें स्वास्थ्य कारणों से पार्टी की अध्यक्षता को मजबूरन त्यागना ही होगा। वहीं अभी तक उनकी मदद करने वाले अहमद भी उनके साथ नहीं है़। राहुल गांधी पहले ही लगातार चुनावी हार का सामना करते रहे है़ं, जिसके चलते उनके नेतृत्व पर अंदरखाने सवाल भी उठने लगे हैं। प्रियंका गांधी वाड्रा का राजनीतिक भविष्य अभी दूर की कौड़ी लग रही है क्योंकि पार्टी उन्हें राष्ट्रीय राजनीति से दूर रख रही है।
ऐसे में अहमद पटेल जो पार्टी और गांधी परिवार के बीच समन्वय स्थापित करके रखते थे, उनकी कमी कांग्रेस को सबसे ज्यादा खलेगी जिसके चलते अब कांग्रेस और गांधी परिवार के बीच नई राजनीतिक मुश्किलों की शुरुआत होगी जो कि पार्टी को टूट की कगार पर ले जाने का कारण बनेगी।