अक्षय कुमार की फिल्म ‘लक्ष्मी’ हिन्दू, किन्नर समाज और लॉजिक तीनों के लिए हानिकारक है

इसे देखने के बाद आप 'हिम्मतवाला' जैसी फिल्मों को भी ऑस्कर के लायक मानेंगे

लक्ष्मी

(pc-जनसत्ता)

जब लोग किसी से प्रतिस्पर्धा करते हैं, तो उनके मन में ये होता है कि वह अपने प्रतिद्वंदी से अपने आप को श्रेष्ठ कैसे सिद्ध करें। लेकिन इन दिनों अक्षय कुमार का लक्ष्य ये हो गया है कि वह अपने आप को अपनी फिल्मों द्वारा निम्नतम कैसे सिद्ध करे। हाल ही में प्रदर्शित उनकी फिल्म ‘लक्ष्मी’ न केवल एक वाहियात फिल्म है, बल्कि सनातन धर्म, किन्नर समाज और लॉजिक तीनों पर कालिख समान है।

लक्ष्मी हाल ही में ‘Hotstar’ OTT प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित हुई एक फिल्म है, जो निर्देशक राघव लौरेंस की ही एक पुरानी फिल्म ‘कंचना’ पर आधारित है। इस फिल्म की कथा आसिफ नामक व्यक्ति के इर्द गिर्द घूमती है, जिसे सुपरनैचुरल तत्वों में तनिक भी विश्वास नहीं है। लेकिन क्या होता है जब एक किन्नर की आत्मा आसिफ में प्रवेश करती है और कैसे वह आत्मा अपने साथ किये गए अन्याय का बदला आसिफ से के माध्यम से लेती है, यह फिल्म इसी पर आधारित है।

किसी और विषय पर चर्चा करने से पहले अगर केवल इसे एक फिल्म के नजरिए से देखें, तो राघव लौरेंस द्वारा निर्देशित लक्ष्मी लॉजिक पर एक करारा तमाचा समान है। गाने कहीं भी, कभी भी ठूंस दिए गए हैं, जोक्स ऐसे है कि कुणाल कामरा का शो देख आपको ज्यादा हंसी आए, और ओवर एक्टिंग, बाप रे बाप। संक्षेप में कहे, तो अपनी ही फिल्म का कचरा करना कोई राघव लौरेंस से सीखे

लेकिन हंसी मज़ाक से इतर, लक्ष्मी केवल एक वाहियात फिल्म नहीं है, बल्कि सनातन धर्म और किन्नर समाज, दोनों के लिए कालिख समान है। यह सत्य है कि देश की संस्कृति में एक अहम महत्व रखने के बाद भी किन्नरों को उनका उचित सम्मान नहीं मिला है, और इसी उद्देश्य से ‘लक्ष्मी’ फिल्म की रचना की गई थी। लेकिन अपने उद्देश्य पर अमल रहना तो छोड़िए, यहाँ भी निर्माता और लेखक सनातन धर्म के प्रति घृणा को जगजाहिर करने से बाज नहीं आए।

फिल्म के प्रारंभ में ही दिखाया गया है कि एक हिन्दू परिवार कैसे एक स्त्री से पीछा छुड़ाने के लिए उस पर चुड़ैल का साया होने का दावा करता है, और एक बाबा के हाथों उस पर अत्याचार करवाता है। इतना ही नहीं, हिन्दू इतने नीच और निकृष्ट होते हैं कि वे अपने किन्नर संतानों को भी लात मार के बाहर निकाल देते हैं। इसके अलावा वे धूर्त होते हैं, कपटी होते हैं, और अंतर जातीय विवाह का विरोध भी करते हैं।

इतना ही नहीं, इस फिल्म में मुस्लिमों को बेहद अच्छे और सभ्य समाज के तौर पर दिखाने का काम किया गया है। चाहे वह किन्नर लक्ष्मी का ख्याल रखने वाले अब्दुल चाचा हो, या फिर मुख्य नायक आसिफ ही क्यों न हो, इस फिल्म के माध्यम से एक बार फिर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को बढ़ावा दिया गया है। इतना ही नहीं, तनिष्क वाले एड विवाद से कोई सीख न लेते हुए इस फिल्म में लव जिहाद को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया है, और एक बच्चे के जरिए इस प्रथा पर सवाल उठाने वाले को दकियानूस सिद्ध करने का प्रयास भी किया गया है। इन सभी बातों को एक ट्विटर हैन्डल Secularism of Bollywood ने काफी विस्तार से बताया है।

लेकिन अगर किसी समुदाय का इस फिल्म ने सर्वाधिक अपमान किया है, तो वो है किन्नर समाज। यूं तो ‘लक्ष्मी’ किन्नर समाज के उत्थान के लिए किया गया एक प्रयास था, जैसे अक्षय कुमार ने एक वीडियो के जरिए दावा किया था। लेकिन जिस प्रकार से अक्षय कुमार ने इस फिल्म में किन्नर की आत्मा से प्रभावित व्यक्ति का रोल निभाया, उसे देख कर ऐसा नहीं लगता है।

इस फिल्म में यदि कुछ अच्छा भी था, तो वे थे केवल शरद केलकर, जिन्होंने किन्नर लक्ष्मी का किरदार निभाया। जिस प्रकार से उन्होंने एक किन्नर के जीवन, उसकी अभिलाषाओं को आत्मसात किया, उसे देखकर तो यही लगता है कि असली हीरो तो वही थे, जिन्होंने केवल 15 मिनट के रोल में अक्षय कुमार से 10 गुना अधिक बेहतर काम करके दिखाया। लेकिन इनके परफॉरमेंस को देखने के लिए आपको पूरे डेढ़ घंटे की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, और इस फिल्म की क्वालिटी को देखकर राम जाने कितने लोगों में इतनी देर तक रुकने की क्षमता होगी।

सच कहें तो लक्ष्मी एक निकृष्ट फिल्म है, जो न केवल सनातन धर्म, बल्कि किन्नर समाज और व्यवहारिकता का उपहास उड़ाती है। यह फिल्म इतनी बुरी है कि एक बार को आप सड़क 2 तक दोबारा देखने को तैयार हो जाएंगे, और हिम्मतवाला और गुंडा जैसी फिल्में भी आपको बुरी नहीं लगेंगी।

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