नीतीश के बिना भाजपा कर सकती थी अच्छा प्रदर्शन, बिहार के एग्जिट पोल्स तो यही कह रहे हैं

एनडीए के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो नीतीश कुमार खुद हैं

बीजेपी

(pc-news18)

बिहार विधानसभा चुनावों के मतदान की समाप्ति के बाद आए अलग-अलग एग्जिट पोल्स के नतीजों में सामने आया है कि एनडीए गठबंधन को इस बार महागठबंधन से कम सीटें मिलेंगी, जिससे बीजेपी खेमे में एक डर का माहौल है कि यही एग्जिट पाल के नतीजे, एग्जेक्ट पोल्स में भी न आ जाएं। इंडिया टुडे और एक्सेज माई इंडिया ने बताया है कि सीएम नीतीश की लोकप्रियता राज्य में धड़ाम से गिर गई है, जिसके चलते बीजेपी को भी नीतीश के साथ होने के कारण हार का मुंह देखना पड़ सकता है और अगर बीजेपी अकेले चुनाव लड़ती तो उसे फायदा होता, साथ ही सरकार में आने की संभावनाएं 90 प्रतिशत तक बढ़ जातीं।

बिहार चुनावों को लेकर आए एग्जिट पोल्स में बताया गया है कि बीजेपी को नीतीश के साथ रहने के कारण बड़ा घाटा होने की संभावनाएं हैं। केवल यही नहीं, बल्कि सभी पोल्स यही बता रहे हैं कि इस बार बीजेपी-जेडीयू गठबंधन सरकार जाने वाली है। सभी ने तेजस्वी यादव को बिहार का नया मुख्यमंत्री घोषित कर दिया है। बीजेपी को लेकर ये भी कहा जाने लगा है कि अगर बीजेपी बिहार में अकेले चुनाव लड़ती तो उसे फायदा होता। कई पत्रकारों ने भी इसको लेकर कुछ ऐसा ही संदेश दिया है कि बीजेपी को नीतीश के साथ जाने का नुकसान भुगतना पड़ रहा है।

बिहार में नीतीश कुमार 15 साल से शासन में हैं। इस दौरान उन्होंने बीजेपी समेत आरजेडी और कांग्रेस के साथ भी गठबंधन किया था। नीतीश जितनी तेजी से राजनीति में आगे बढ़े उतनी ही तेजी से उनका घमंड भी सिर चढ़कर तांडव करने लगा। नीतीश को महागठबंधन के साथ सरकार चलाने और रातों-रात दोबारा बीजेपी के साथ आने के बाद ये लगने लगा था कि पार्टी किसी की भी हो सीएम को चेहरा बिहार में वहीं रहेंगे, लेकिन हकीकत ये हुई कि बिहार की जनता को उनका ये दल-बदल करना पसंद नहीं आया, जो कि उनकी लोकप्रियता के घटने का बड़ा कारण बन गया।

नीतीश कुमार के 15 साल के शासन को लेकर लोगों के मन में काफी रोष रहा है। 15 साल की यही सत्ता विरोधी लहर उन्हें सबसे ज्यादा भारी पड़ी है। नीतीश के काम करने के तरीके को लेकर लोगों का यह कहना है कि वो पहले पांच साल यानी 2005 से 2010 के शासन में तो काम करते नजर आए थे, लेकिन दूसरा और तीसरा दोनों ही कार्यकाल विवादित रहे हैं। इस दौरान उनका काम जमीनी स्तर पर नहीं दिखा, जो कि उनके लिए बड़ी मुसीबत का सबब बना।

इसके साथ ही कोरोना काल में नीतीश की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो गए। प्रवासी मजदूरों की वापसी के मुद्दे पर कोई निश्चित फैसला न ले पाने के चलते नीतीश को आलोचना का सामना करना पड़ा। नीतीश पूरे कोरोना काल में केवल वीडियों कॉन्फ्रैंसिंग के जरिए जनता को संबोधित करते रहे। जनता से उनका सीधा कोई संवाद या सरोकार रहा ही नहीं। रोजगार को लेकर भी नीतीश की काफी आलोचना हुई। वहीं प्रवासी मजदूरों की वापसी और राज्य में रोजगार के अवसर पैदा न कर पाने को लेकर भी नीतीश कुछ खास कर नहीं सके।

नीतीश कुमार की इसी गिरती लोकप्रियता का नुकसान बीजेपी को हुआ। बीजेपी को ये पता था कि उसे ये नुकसान हो सकता है। इसीलिए उसके विज्ञापनों में नीतीश नहीं थे। लोगों का कहना भी था कि वो मोदी से नहीं नाराज हैं, लेकिन वो नीतीश के कार्यों से खफा हैं। इसलिए वो नीतीश को वोट नहीं देंगे। नीतीश इन चुनावों में अपना आपा भी कई बार खो  चुके हैं जो कि उनके लिए, और उनके गठबंधन सहयोगी बीजेपी के लिए मुसीबत का कारण बना।

नीतीश की यही घटती लोकप्रियता बीजेपी के लिए खतरा साबित हुई। आज स्थिति ये है कि एग्जिट पोल उसके गठबंधन को महागठबंधन से पीछे दिखा रहे हैं, जो ये बताने के लिए काफी है कि यदि बीजेपी बिहार के चुनावी रण में अकेले उतरती तो फायदे में रहते हुए सरकार बना सकती थी लेकिन नीतीश ने सब गड़बड़ कर दिया।

 

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