कांग्रेस के सौतेले व्यवहार के कारण कैसे पंजाब बिहार की कीमत पर आगे बढ़ रहा है

दक्षिण भारत

**EDS: FILE** New Delhi: In this file photo dated Saturday, Aug 10, 2019, Congress President Rahul Gandhi with senior party leader Sonia Gandhi during Congress Working Committee (CWC) meeting, at AICC HQ in New Delhi. Ahead of the Congress Working Committee meeting on Monday, Aug. 24, 2020, different voices have emerged within the party with one section comprising sitting MPs and former ministers demanding collective leadership, while another group has sought the return of Rahul Gandhi to the helm. (PTI Photo/Atul Yadav)(PTI23-08-2020_000092B)

पिछले काफी वक्त से कृषि सुधारों को लेकर चर्चा हो रही है। लोग कृषि कानूनों के विरोध में ये तर्क दे रहे हैं कि बिहार में APMC अधिनियम 2006 में खत्म कर दिया गया था जिसके बावजूद यहां अभी तक स्थितियां दयनीय बनी हुईं हैं। ये एक बेहद ही बेतुका तर्क है क्योंकि बिहार की कृषि विकास दर पिछले 15 सालों में लगभग 8 प्रतिशत रही है जो कि देश की औसत 3 फ़ीसदी विकास दर से बहुत ज्यादा है और ये पंजाब के दो फीसदी दर से तो चार गुना ज्यादा है।

हालांकि, हमें पिछले 15 सालों के ही आंकड़ों पर नजर ही नहीं डालनी चाहिए, बल्कि सभी की तुलना 1970 से करनी चाहिए, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब सभी हरित क्रांति में शामिल हुए थे। यही तुलना बेहतर होगी क्योंकि मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार कर्नाटक पहले इसमें शामिल नहीं हुए थे। लेकिन आज ये मध्य प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में तेज गति से कृषि विकास हो रही है। देश के कृषि मंत्री के तौर पर चिदंबरम सुब्रमण्यम ने 1964 से 1967 के बीच देश के कृषि विकास के लिए नीतियां बनाने की शुरुआत की।  पंजाब में 1956 से 1964 तक प्रताप सिंह कैरों नाम के एक दूरदर्शी नेता का शासन था, जो भाखड़ा नांगल बांध सहित राज्य में बुनियादी ढांचे के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके थे। इसके अलावा, राज्य में भूमि समेकन की परियोजना में भी कैरों की भूमिका अहम थी, जिसके चलते हरित क्रांति के प्रयोग के लिए पंजाब सकारात्मक रुख रखता था।

इसके अलावा जब राज्य में 1964 से 1970 के बीच प्रकाश सिंह बादल की सरकार आई तो कृषि का सारा काम कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के अंतर्गत होने लगा, क्योंकि पंजाब के पास कोई भी मजबूत कद का नेता नहीं था। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार ने कृषि के प्रयोगों के लिए गंगा के मैदानी इलाकों की सबसे उपजाऊ भूमि (यूपी बिहार और बंगाल) को नजरअंदाज करते हुए पंजाब को प्राथमिकता दी।

इंडिया टुडे के एक पत्रकार असित जॉली ने थोड़े समय में ही पंजाब के बुनियादी ढांचे के निर्माण की महत्वपूर्ण गति और निवेश का पूरी तरह से वर्णन किया है। उन्होंने पंजाब की हरित क्रांति के पीछे की कहानी के बारे में विस्तार से लिखा था,  “1962 में स्थापित किया गया PAU नई गेहूं की किस्मों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाने में महत्वपूर्ण साबित हुआ। ध्यान देने वाली बात ये भी है कि राज्य के कृषि विपणन निकाय, पंजाब मंडी बोर्ड, भूमि विकास और प्रत्यावर्तन निगम और पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज कॉर्पोरेशन को भी 1965-66 तक स्थापित कर दिया गया था।” उन्होंने लिखा “इसके अलावा, केंद्रीय कृषि मूल्य आयोग 1965 में, और FCI (भारतीय खाद्य निगम) 1964 में खोला गया और 1965 की गर्मियों में गेहूं की खरीद शुरू की गई।”

पिछले 5 दशकों में, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को सब्सिडी के रूप में केंद्र सरकार से अरबों डॉलर मिले हैं। केंद्र सरकार इनपुट फ्रंट (बीज सब्सिडी, उर्वरक सब्सिडी, रियायती ऋण, बिजली सब्सिडी) के साथ-साथ आउटपुट फ्रंट (एमएसपी, कृषि विपणन में निवेश) पर कृषि सब्सिडी देती है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें से अधिकांश सब्सिडी पंजाब और हरियाणा में जाती है। केंद्र सरकार की कुल 80 प्रतिशत की खरीद में गेहूं (37 प्रतिशत) और चावल (43 प्रतिशत) शामिल हैं, और कुल गेहूं और चावल की लगभग 70 प्रतिशत खरीद केवल पंजाब और हरियाणा से की जाती है क्योंकि इन राज्यों में परिष्कृत APMC नेटवर्क है।

पंजाब और हरियाणा ने धान उगाना शुरू कर दिया, ये जानते हुए भी कि ये फसल पूर्वी भारत के लिए अधिक अनुकूल है (इसे पानी की बहुत आवश्यकता है)। इसका सीधा कारण ये था कि केंद्र और राज्य सरकारें कई तरह की सब्सिडी दे रही थीं। किसानों द्वारा भूजल का दोहन इसलिए किया गया क्योंकि सरकारों द्वारा बिजली भी मुफ्त मिल रही थी। वहीं, बीजों की खरीद में भी किसानों को सब्सिडी दी गई थी। किसानों द्वारा फसलों को उगाने के लिए उर्वरकों को खरीदा गया था क्योंकि उन्हें इसमें भी भारी सब्सिडी दी गई थी।

इस पूरे खेल के बाद केंद्र सरकार द्वारा इन राज्यों में उत्पादित चावल को रियायती मूल्य पर खरीदने के लिए तैयार हो जाती थी। इसलिए जिस धान का उत्पादन पूर्वी यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल में होना चाहिए था, वो पंजाब में उत्पादित किया जा रहा था। इसमें केंद्र सरकार की सब्सिडी और खाद्य नीतियां पंजाब हरियाणा के किसानों के लिए फायदे का सौदा हो गईं।

इसका नतीज़ा ये  है कि वित्त वर्ष 20 तक, केंद्र सरकार कृषि सब्सिडी (इनपुट + आउटपुट) पर टैक्स के कुल का धन  लगभग 3 लाख करोड़ रुपये खर्च करती है, जिसमें से अधिकांश पंजाब और हरियाणा में जाता है। यह धन, या इस धन का हिस्सा, यूपी बिहार जैसे गरीब राज्यों को मिलना चाहिए था, लेकिन समृद्ध राज्य पंजाब इन राज्यों की कीमत पर बढ़ रहा है।

 

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