तुर्की Middle East में बदलाव लाने वाला था, अब खुद की Economy बचाने के लिए चीन के दरवाजे पर खड़ा है

चौबे जी छब्बे बनने चले थे, दुबे बनकर लौट आए!

एर्दोगन

विनाश काले विपरीत बुद्धि: विनाश के काल में ही तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन के मन में यह विचार आया होगा कि वे अपने आप को इस्लामिक जगत के खलीफ़ा के रूप में स्थापित कर सकते हैं। अपने मंसूबों की ओर पहला आधिकारिक कदम बढ़ाते हुए इसी वर्ष जुलाई में एर्दोगन ने हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को मस्जिद में बदलने का फैसला ले डाला था। तुर्की के संस्थापक मुस्तफा केमल अतातुर्क के फैसले के अनुसार UNESCO के निर्देशों के तहत हागिया सोफिया को एक म्यूज़ियम के तौर पर संरक्षित किया गया था, लेकिन एर्दोगन के मन में कुछ और ही चल रहा था। लीबिया, सीरिया से लेकर Nagorno-Karabakh तक में उनके हस्तक्षेप का कारण यही था कि कैसे भी वो अपने आप को इस्लामिक जगत के नेता के तौर पर प्रस्तुत कर सकें। हालांकि, उनका यह “खलीफ़ा अभियान” सिर्फ 4-5 महीनों में ही ढह गया है।

जो सिलसिला हागिया सोफ़िया से शुरू हुआ, वो अब थमने का नाम नहीं ले रहा है। हागिया सोफ़िया के बाद वे ग्रीस समेत कई यूरोप देशों और अमेरिका के निशाने पर आ गए थे। उसके बाद तुर्की ने फ्रांस के राष्ट्राध्यक्ष Emmanuel Macron से पंगा ले लिया, और एर्दोगन ने उन्हें “मानसिक तौर पर दिवालिया” घोषित कर दिया, जिसके बाद EU में उनपर प्रतिबंध लगाने की मांग तेज हो गयी है। अमेरिका अब तुर्की पर S-400 की खरीद के लिए पहले ही प्रतिबंध लगा चुका है। इसके साथ ही रूस और ईरान जैसे देशों का रुख भी अब तुर्की के खिलाफ सख़्त होता जा रहा है।

ऐसे में अब तुर्की ने चीन के साथ नजदीकी बढ़ाने का फैसला लिया है। उइगर मुसलमानों के मुद्दे पर वे पहले ही चुप्पी साध चुके हैं। अब कोरोना के बाद उन्होंने कहा है कि वे चीन की वैक्सीन को खुले-मन से स्वीकार करेंगे। इसके साथ ही तुर्की और चीन के बीच में freight train ने अपनी पहली ऐतिहासिक यात्रा को भी पूरा किया है। चीन को भी अब अलग-थलग पड़ चुके तुर्की के सहारे मध्य एशिया में दोबारा अपना प्रभाव जमाने का मौका मिल गया है। अमेरिका द्वारा तुर्की पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद चीन ने अमेरिका की कड़ी निंदा की है और ऐसे एकतरफ़ा फैसलों का विरोध किया है।

जो एर्दोगन अपने आप को इस्लामिक जगत के सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित करने चले थे, वो अब चीन का गुलाम बनने की ओर अग्रसर हैं। उनके देश की इकॉनोमी पहले ही पटरी से उतर चुकी है और अब उनके यहाँ दूसरे तख़्तापलट की कोशिशें किए जाने की खबरें देखने को मिल रही हैं। एर्दोगन के बारे में एक कथन एकदम सही बैठता है- चौबे जी छब्बे बनने चले थे, दुबे बनकर लौट आए!

Exit mobile version