भारत के सबसे बड़े समूहों में से एक टाटा समूह भारत की केंद्र सरकार को पीछे छोड़ स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध कंपनियों की सबसे मूल्यवान प्रमोटर बन गया है। रिपोर्ट के अनुसार टाटा समूह द्वारा प्रमोट की जाने वाली कंपनियों के मूल्य को देखा जाए तो पिछले वित्त वर्ष के अंतिम दिन तक वर्ष-दर-वर्ष के आधार पर 34.4 प्रतिशत वृद्धि के साथ 9.34 लाख करोड़ रुपये हो चुका था।
वहीं दूसरी ओर, सूचीबद्ध PSUs में सरकार की हिस्सेदारी 9.24 लाख करोड़ रुपये है, जो पिछले वित्तीय वर्ष के की तुलना में 19.7 प्रतिशत की गिरावट है। यह खबर कोई आम खबर नहीं है बल्कि यह भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इतिहास में एक ऐसी खबर है जिसे देश में नेहरूवादी समाजवाद के युग की अंत के रूप में देखा जाएगा।
जब भारत को स्वतंत्रता मिली थी, तब राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग (राजाजी, बी आर शेनॉय जैसे लोग) का मनना था कि भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिए समाजवाद को एक मॉडल के रूप में अपनाना चाहिए। तब सार्वजनिक उपक्रमों यानि PSUs को आधुनिक भारत का स्तंभ कहा जाता था और उद्यमियों के सपनों को नौकरशाहों द्वारा कुचल दिया जाता था।
तब ‘बौद्धिक वर्ग ‘ जिन्हें किसी भी व्यवसाय को चलाने का बेहद कम अनुभव होता था या होता भी नहीं था, उन्हे सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबंधन में रख दिया जाता था और साथ ही देश के सभी संसाधनों को आधुनिक भारत के इन ‘स्तंभों’ में झोक दिया जाता था। हालाँकि, ये PSUs लाखों-करोड़ो भारतीय की आकांक्षाओं को पूरा करने में असफल रहे। इंदिरा गांधी के शासन में, देश की जनसंख्या वृद्धि, आय वृद्धि से अधिक थी, जिसका अर्थ है कि प्रति व्यक्ति की आय का ग्राफ ढलान पर था।
1970 के दशक के अंत तक भारतीय प्रशासन को यह समझ आ गया कि समाजवादी मॉडल से देश का भला नहीं होने वाला है और राजनीतिक अर्थव्यवस्था पूंजीवादी दिशा की ओर बढ़ने लगी है। वर्ष 1991 में नवनिर्वाचित पीवी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा सुधारों को लागू करने का फैसला राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिए टर्निंग पॉइंट बन गया। और आज, उन सुधारों के लगभग 30 साल बाद, एक निजी स्वामित्व वाला समूह, बाजार के मूल्यांकन के संदर्भ में सरकार द्वारा प्रमोटेड कंपनियों से आगे निकल गया है।
पिछले एक साल में, टाटा समूह ने बाजार मूल्यांकन में 3 लाख करोड़ रुपये से अधिक जोड़े, जबकि सरकार द्वारा प्रमोटेड कंपनियों को 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ। बिज़नेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, “टाटा समूह की 15 कंपनियों ने पिछले वर्ष (31 दिसंबर 2019) के 11.6 ट्रिलियन रुपये के मुक़ाबले इस वर्ष 15.6 ट्रिलियन रुपया जोड़ा। इसकी तुलना में, 60 सूचीबद्ध PSUs जिनकी प्रमोटर भारत की सरकार थी, उन सभी ने संयुक्त रूप से गुरुवार तक 15.3 ट्रिलियन रुपये जोड़े जो पिछले वर्ष के अंत में 18.6 ट्रिलियन रुपये थे। ”
पिछले एक दशक में, कंपनियों में सरकारी हिस्सेदारी का मूल्य धीरे धीरे बढ़ा है। रिपोर्ट के अनुसार यह मूल्य 7.4 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 9.2 लाख करोड़ रुपये हुआ, जबकि टाटा समूह के शेयरों का मूल्य 15 गुना बढ़ कर 0.7 लाख करोड़ रूपये से बढ़ कर 9.3 लाख करोड़ रुपया हो गया।
Tata Group की Tata Consultancy Service (TCS), का मूल्य अकेले 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक है, जो Reliance Industries Limited (RIL) समूह के बाद भारत में दूसरी सबसे बड़ी है। कुछ साल पहले ओएनजीसी, एनटीपीसी, पावरग्रिड, कोल इंडिया जैसे सरकारी तेल और ऊर्जा की बड़ी कंपनियाँ सबसे मूल्यवान भारतीय कंपनियाँ थी। आज उनमें से कोई भी शीर्ष 20 में नहीं है।
सबसे मूल्यवान सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी के रूप में SBI 2.5 लाख करोड़ रुपये के बाजार मूल्यांकन के साथ 14 वें स्थान पर है जिसकी कीमत TCS से 4 गुना और RIL से 5 गुना कम है। पिछले तीन दशकों में पीएम नरसिम्हा राव सरकार द्वारा आर्थिक उदारीकरण की बदौलत भारत का आर्थिक विकास जबरदस्त रहा, जिसे बाद में वाजपेयी ने आगे बढ़ाया। हालांकि मनमोहन सिंह की सरकार ने किसी भी तरह के सुधार को लागू नहीं किया और इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि वामपंथी दलों से मिलने वाला समर्थन था।
परंतु पिछले साढ़े छह वर्षों में, मोदी सरकार ने जीएसटी, आईबीसी, कृषि-उदारीकरण के साथ कई बेहतरीन सुधार लागू किए हैं। आर्थिक विकास पर इन सुधारों का असर अगले कुछ वर्षों में दिखाई देगा।