जानिए, कैसे पीएम मोदी ने 18 महीने तक कृषि क़ानूनों को टालकर फर्जी किसानों को उनके ही जाल में फंसा दिया है

ये है मोदी सरकार का मास्टरस्ट्रोक!

किसानों

किसान आंदोलन अब एक ऐसे मोड़ पर है जहाँ किसानों को तय करना है कि वे इस मामले का शांतिपूर्ण समाधान चाहते हैं या वे कुछ राजनीतिक तबकों के स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस आंदोलन को हिसंक मोड़ देना चाहते हैं। सरकार ने किसानों की मांगों को स्वीकार कर अपनी ओर से समाधान का कदम बढ़ा दिया है, अब यदि किसान सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हैं तथा गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली जैसी बचकानी मांग को नहीं छोड़ते हैं तो वे सरकार को एक ऐसी स्थिति में पहुंचा देंगे जहाँ से आंदोलन को बलपूर्वक दबाना ही एकमात्र समाधान होगा।

गतिरोध के शांतिपूर्ण समाधान के लिए केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि नए कृषि कानून डेढ़ वर्ष तक लागू नहीं किए जाएंगे। केंद्र इस संबंध में एक हलफनामा कोर्ट में पेश करने को तैयार है। सरकार एक संयुक्त कमेटी के गठन को तैयार है तथा वह आंदोलनकारी किसानों के प्रतिनिधियों के साथ कानूनों पर चर्चा के लिए भी तैयार हो गई है। अब किसान नेताओं को यह तय करना है कि उन्हें सरकार के साथ प्रक्रियात्मक ढंग से चर्चा करके मुद्दों को सुलझाना है या सड़क जाम कर अपनी बात मानने को मजबूर करना है।

किसान नेताओं ने सरकार के प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि उनकी मांग कानून का स्थगन नहीं है, बल्कि कानून की वापसी है। फिर भी वे 22 जनवरी को चर्चा के बाद यह फैसला करेंगे कि उन्हें सरकार का प्रस्ताव स्वीकार है या नहीं। किंतु गणतंत्र दिवस पर परेड करने की मांग दोहरा कर किसानों ने इशारा कर दिया है कि वे सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के मूड में हैं।

देखा जाए तो मोदी सरकार द्वारा कानूनों को डेढ़ वर्ष तक रोकने का फैसला एक मास्टर स्ट्रोक है। यदि विरोध मुद्दों पर है तो डेढ़ वर्ष का समय इसके समाधान के लिए पर्याप्त है। किंतु वास्तविकता यह है कि सिंघु बॉर्डर घेर कर बैठे किसानों का कुछ स्वार्थी तबकों द्वारा प्रयोग किया जा रहा है, जिनकी कोशिश है कि किसी भी तरह सरकार और भारतीय लोकतंत्र की छवि खराब की जाए।

वैसे भी चर्चा हो तो किससे हो। देश के किसानों का एक बड़ा तबका है जो इन कानूनों से प्रसन्न है। क्या सरकार भावी चर्चा में उनके प्रतिनिधियों को शामिल करेगी, या उनकी असंगठित आवाज अनसुनी कर दी जाएगी। फिर यह कैसे तय होगा कि चर्चा में मौजूद किसान प्रतिनिधि वास्तव में किसानों का नुमाइंदा है। इसके लिए कोई चुनाव प्रक्रिया तो है नहीं। ऐसे में सरकार द्वारा गठित की जाने वाली कमेटी यदि किसी निष्कर्ष पर पहुंचती भी है तो इस बात की क्या गारंटी है कि पुनः कुछ नए लोग, नई मांगो के साथ किसी अन्य सड़क को जाम करके नहीं बैठेंगे।

इन सुधारों को लेकर वाजपेयी सरकार से अब तक कई कमेटी गठित की जा चुकी है। सभी कमेटियों ने यही निष्कर्ष दिया है कि अन्य क्षेत्रों की तरह कृषि क्षेत्र को भी निजी निवेशकों के लिए खोलने से किसानों को लाभ होगा। शंकरलाल गुरु कमेटी ने प्राइवेट सेक्टर के निवेश की वकालत की, आल्हुवालिया कमेटी ने पुराने Essential Commodities Act को बदलने की मांग की, ऐसे ही अन्य कमेटियों की मांगों तथा सिफारिशों को ध्यान में रखकर तीनों कृषि बिल बने।

ऐसे में डेढ़ वर्ष की चर्चा से भी कोई नया निष्कर्ष निकलेगा इसकी उम्मीद कम है। यह बात आंदोलनकारी और सरकार, दोनों ही जानते हैं। लेकिन फिर भी सरकार ने बातचीत का रास्ता देकर एक बेहतर कदम उठाया है। यदि तथाकथित किसान नेता इसे स्वीकार कर लेते हैं तो आंदोलन हिंसा की ओर नहीं बढ़ेगा। यदि वे अपने अड़ियल रवैये को नहीं बदलते तो सरकार यह सिद्ध कर देगी कि ये आंदोलनकारी समाधान नही टकराव चाहते हैं, तथा आंदोलन पूर्णतः राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित है। इसका उद्देश्य केवल केंद्र सरकार की छवि धूमिल करना है।

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