ट्रम्प प्रशासन के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान को उसके बुरे दिन दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अमेरिका ने पहली बार इस बात को सार्वजनिक और आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में जिसके खिलाफ युद्ध छेड़ा हुआ है, उन्हें इस्लामाबाद से ही राजनीतिक और सैन्य समर्थन मिलता रहा है।
ट्रम्प के दौरान ही अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ सभी प्रकार के सैन्य करारों पर रोक लगा दी और पाकिस्तान को दिये जाने वाली आर्थिक मदद पर भी रोक लगा दी गयी! अब जब अमेरिका में सत्ता परिवर्तन हुआ है, तो यह आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान के लिए उम्मीदों की एक नयी रोशनी लेकर आया है! पाकिस्तान को उम्मीद है कि बाइडन प्रशासन ओबामा प्रशासन की तरह ही पाकिस्तान को लेकर नर्म रुख दिखाएगा, और उसे भारत के खिलाफ रणनीतिक जंग में अमेरिका का साथ मिलेगा!
बाइडन प्रशासन ने अपने पहले हफ्ते में कुछ ऐसे संकेत भी दिये हैं, जो पाकिस्तान में बैठे विश्लेषकों को उत्साहित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, रक्षा मंत्री पद के लिए मनोनीत Lloyd Austin ने हाल ही में पाकिस्तान को एक अहम साझेदार बताते हुए कहा था कि वे पाकिस्तान के साथ सैन्य सहयोग को पुनर्जीवित करने के लिए कुछ कदम उठा सकते हैं। इसके साथ ही बाइडन प्रशासन ने कुछ अहम पदों के लिए पाकिस्तानी मूल के अधिकारियों (अली जैदी एवं सलमान अहमद) को अपने प्रशासन में जगह दी है। पाकिस्तान में इसको लेकर काफी उत्साह है!
हालांकि, क्या यह उत्साह वाकई तर्कसंगत है?
क्या वाकई पाकिस्तान दोबारा अमेरिका का ठीक वैसा साझेदार बन जाएगा, जैसा 90 के दशक में हुआ करता था? शायद नहीं! इसे समझने के लिए हमें जानना होगा कि 90 के दशक के समय अमेरिका के लिए पाकिस्तान का महत्व क्या था! अमेरिका ने पाकिस्तान का इस्तेमाल करते हुए अफगानिस्तान से सोवियत का प्रभाव खत्म करने की योजना पर काम किया था। CIA और ISI ने मिलकर तालिबान की नींव रखी थी, और तालिबान के लिए लड़ने के लिए कई मुजाहिदिनों को तब पाकिस्तान के मदरसों से भी भेजा गया था।
पाकिस्तान की सहायता से अफगानिस्तान पर तालिबान का प्रभाव बढ़ता गया और वर्ष 1996 में तालिबान ने राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की सरकार को गिराकर काबुल पर अपना ध्वज फहरा लिया!
हालांकि, वर्ष 2001 में अमेरिका में हुए 9/11 के हमलों ने समीकरणों को फिर पूरी तरह बदल दिया। अमेरिका ने अक्टूबर 2001 में तालिबान के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया और वर्ष 2002 में तालिबान की हुकूमत को उखाड़ कर फेंक दिया गया! हालांकि, अफगानिस्तान पर तालिबान का प्रभाव आज तक खत्म नहीं हो पाया है।
दूसरी ओर तालिबान पर अच्छा खासा प्रभाव होने के कारण अमेरिका के लिए शुरू से ही पाकिस्तान एक अच्छा asset रहा है। हालांकि, ट्रम्प के चार सालों के दौरान अफगानिस्तान में बहुत कुछ बदला है। ट्रम्प का शुरू से ही विचार रहा है कि अमेरिका को दूसरों की लड़ाई लड़ने में कोई रूचि नहीं दिखानी चाहिए। इसी कड़ी में फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान ने दोहा में एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके तहत अमेरिका ने तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान में एक बड़ी भूमिका देते हुए वहाँ से अपने सैनिक वापस बुलाने का रास्ता खोला था।
अमेरिका और तालिबान के समझौते के बाद अफगानिस्तान में पाकिस्तान के प्रभाव में कमी देखने को मिली है। तालिबान की बढ़ती राजनीतिक ज़िम्मेदारी के साथ ही उसे इस बात का अहसास हुआ है कि उसे क्षेत्र की बड़ी ताकतों जैसे भारत के साथ भी अपने सहयोग को बढ़ाना ही होगा! यह बात तालिबान भी भली-भांति जानता है कि अगर उसे अफ़गान सत्ता पर अपनी पकड़ बनानी है, तो उसे भारत के कूटनीतिक समर्थन की आवश्यकता होगी।
शायद इसलिए, तालिबान ने नई दिल्ली को आश्वासन देते हुए कहा था कि वह कश्मीर के जिहादियों को किसी भी सूरत कोई समर्थन प्रदान नहीं करेगा। इसके साथ ही तालिबान ने यह भी साफ किया था कि वह भारत के अंदरूनी मामलों में कभी दख्ल नहीं देगा। हालांकि, इन वादों के एवज में भारत अफ़गानिस्तान की शांति वार्ता में अफ़गान सरकार की भूमिका को कमतर करने के पक्ष में नहीं दिखाई देता।
भारत शुरू से ही तालिबान का कोई खास प्रशंसक नहीं रहा है। 90 के दशक में तो भारत खुलकर तालिबान के खिलाफ बोलता था। आने वाले दशकों में भारत ने अफ़गान सरकार के प्रति अपना समर्थन जताना तो जारी रखा, लेकिन तालिबान के खिलाफ अपने रुख में थोड़ा बदलाव भी किया। ट्रम्प प्रशासन के आने के बाद तो भारत को अफ़गानिस्तान की राजनीति में तालिबान की बड़ी भूमिका को स्वीकार करना पड़ा। पिछले वर्ष दोहा में जब अमेरिका और तालिबान के बीच एक शांति समझौता हुआ, तो मौके पर भारत भी मौजूद था।
तालिबान एक राजनीतिक संगठन भी है, जिसे अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए बहरूनी कूटनीतिक और आर्थिक सहायता चाहिए! पाकिस्तान यह सब प्रदान करने में अक्षम है। दूसरी ओर भारत के अफगान की सिविल सरकार के साथ भी संबंध बेहद प्रगाढ़ हैं। ऐसे में अगर भविष्य में दोनों पक्षों के बीच में Intra-Afghan वार्ता को आगे बढ़ाना है, तो दोनों पक्षों पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर भारत इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है। बाइडन प्रशासन ने आने के बाद तालिबान शांति समझौते पर पुनर्विचार करने के संकेत दिये हैं, जो क्षेत्र में अनिश्चितता को बढ़ावा दे सकता है। ऐसे में भारत यहाँ बड़ी भूमिका में है, जो पाकिस्तान को उतना आकर्षक asset नहीं बनाता, जो पाकिस्तान पहले हुए करता था।
ऐसे में बाइडन प्रशासन पाकिस्तान के लिए शायद ही कोई राहत लेकर आए! अमेरिका के लिए आज चीन सबसे बड़ा खतरा है और ऐसे में उसे इस खतरे से निपटने के लिए भारत का साथ चाहिए। पाकिस्तान को बाइडन प्रशासन से ज़्यादा उम्मीद नहीं लगानी चाहिए!