अकाली दल ने किसानों के लिए NDA छोड़ा, अब इसे नगर पालिका चुनाव में मिली अब तक की सबसे बुरी हार

अकाली दल

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राजनीति को लेकर ये कहा जाता है कि केन्द्र में जिस पार्टी की सरकार हो उससे गठबंधन करना फायदेमंद होता है। इतना ही नहीं अगर गठबंधन पुराना हो, तो विश्वसनीयता भी बढ़ जाती है, इसलिए ऐसे गठबंधनों को तोड़ने से बचना चाहिए, लेकिन पंजाब की क्षत्रप अकाली दल ने अपने सियासी एजेंडे के चक्कर में सारे फॉर्मूले ही तोड़ दिए, और पंजाब में अकाली दल की ताजा स्थिति ‘न माया मिली न राम’ वाली है क्योंकि पंजाब की सियासत के लिए एनडीए से गठंबंधन तोड़ने वाले अकाली दल को निकाय चुनाव में अब तक की सबसे बुरी हार से राजनीतिक स्थिति से गुजरना पड़ रहा है।

बीजेपी के लिए पंजाब कभी-भी वोट-बैंक का खास गढ़ नहीं रहा है क्योंकि वो राज्य में एनडीए की साथी अकाली दल के साथ शासन करती थी और इसका फायदा बीजेपी से ज्यादा अकालियों को होता था क्योंकि उन्हें केन्द्र की राजनीति में भी बीजेपी के विशाल नेतृत्व का साथ मिलता था, लेकिन अकालियों की महत्कांक्षा अब हद से ज्यादा बढ़ गई थी और कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर उनके पंख पंजाब की सियासत के कारण ज्यादा  निकल आए थे। इसके चलते अकालियों ने मोदी सरकार और एनडीए से दूरी बनाते हुए उनके विरोध में खड़े होना मुनासिब समझा, लेकिन उनका ये सियासी दांव उनके लिए अब तक की सबसे बड़ी असफलता लेकर सामने आया है।

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पंजाब में अकालियों की सियासत अब हाशिए पर जा चुकी है। ये हम नहीं कह रहे बल्कि पंजाब के निकाय चुनाव के आए नतीजों से साबित हो रहा है, जिसका साफ-साफ ये इशारा है कि अकालियों की बड़ी नेता और बादल परिवार की बहू हरसिमरत कौर तक के क्षेत्र में भी कांग्रेस को बंपर जीत मिली है। बठिंडा सीट से चुनाव लड़ने वाली हरसिमरत के निगम चुनाव में आए नतीजों के बाद ये तय है कि वहां 53 वर्षों बाद कोई कांग्रेसी मेयर बनेगा। साफ है कि बदल परिवार का इस सीट से सूपड़ा साफ हो गया है। कांग्रेस को 8 में से 6 पर जीत मिली है और अकाली दल एक पर सिमट गया है। भाजपा और आम आदमी पार्टी की बात न ही की जाए तो बेहतर है, क्योंकि अब दोनों का ही पंजाब में कोई खास जनाधार नहीं है।

पंजाब के निकाय चुनाव के नतीजों को लेकर राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी के घटे जनाधार की बात कर रहे हैं लेकिन कोई भी अकालियों की बात नहीं कर रहा है। कृषि कानूनों के आधार पर सियायत करने की तैयारी कर रहे अकाली शायद नहीं जानते थे कि वो दो साल पहले ही चुनाव हारे हैं और अपने लंबे कुशासन के कारण उनकी सत्ता गई थी। ऐसे में उनके लिए ये आवश्यक था कि वो केन्द्र में मोदी सरकार के अंतर्गत राष्ट्र निर्माण के कार्य में शामिल होते और उसके जरिए पंजाब में किए गए केन्द्र सरकार के कामों का उल्लेख करते, और पुनः राज्य में वापसी की सफल कोशिश करते, लेकिन वो इतनी प्लानिंग कर ही न सके।

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कृषि कानूनों को लेकर जो सियासत कांग्रेस कर रही थी, अकाली भी उसी में शामिल हो गए, जिसका नुकसान केवल-और-केवल अकालियों को ही हो रहा है। निकाय चुनाव के नतीजों के बाद साफ है कि पंजाब में अकाली ‘न तीन में हैं न तेरह में’। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि एक गलत फैसले के चलते अकाली दल के पंजाब की सियासत में हाशिए पर जा चुका है जहां से उसकी वापसी लगभग मुश्किल है।

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