असली किसानों ने लगाई दुत्कार तो फर्जी किसानों का ‘चक्का जाम’ हुआ फेल

चक्का जाम का पिट गया ढोल, फर्जी किसानों की खुल गई पोल

चक्का जाम

PC: Quint Hindi

पिछले लगभग ढाई महीनों से संसद द्वारा पारित कृषि कानूनों के मुद्दे पर पंजाब और हरियाणा के तथाकथित किसान दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन और आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन इन लोगों से 26 जनवरी को की गई हिंसा एक बड़ी गलती के रुप में साबित हुई जिसने अब इनके आंदोलन की हवा निकाल दी है। इनके विरोध प्रदर्शन की हालत ये हो गई है कि असल किसानों ने इस हिंसक हुए विरोध प्रदर्शन से कन्नी काट ली है, इसके चलते किसानों के संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा बुलाया गया ‘चक्का जाम’ का विरोध प्रदर्शन भी पूरी तरह फेल हो गया, और अब ये कहा जा रहा है कि ये लोग जो भी आंदोलन करेंगे उसका अंजाम विफलता ही होगा।

तथाकथित किसानों के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लगभग 32 किसान संगठनों के संयुक्त किसान मोर्चा ने 6 फ़रवरी को ‘चक्का जाम’ के जरिए विरोध प्रदर्शन का ऐलान तो किया था, लेकिन इसके जरिए इन अराजकतावादी किसानों के आंदोलन की कमजोरी सामने आ गई है, क्योंकि विश्लेषक इसे किसी भी कीमत पर सफल नहीं मानते हैं। इसकी बड़ी वजह ये है कि देश के असली किसानों ने 26 जनवरी की शर्मसार करने वाली घटनाओं के बाद इस आंदोलन से अपने हाथ पीछे खींच लिए हैं जिससे किसानों का ये आंदोलन केवल दिखावे और राकेश टिकैत जैसे कुछ किसान नेताओं की जिद तक सीमित रह गया है।

दूसरी ओर 26 जनवरी की घटना के बाद पूरे देश में किसानों के आंदोलन को लेकर हाई-अलर्ट था। राजधानी दिल्ली की पुलिस ने तो पिछले काफी दिनों से ही किसी भी अप्रिय घटना से निपटने की तैयारी कर रखी थी। ऐसे में किसानों ने अपनी हार को मानते हुए ‘चक्का जाम’ का ऐलान कर पहले ही मान लिया और कह दिया कि वो दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कोई चक्का जाम नहीं करेंगे, जो कि ये साबित कर रहा था कि इन राज्यों की सरकारों की कार्रवाई इन्हें अराजकता के बाद सलाखों के पीछे ले जा सकती है।

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ऐसे में किसानों के चक्का जाम का ये विरोध प्रदर्शन केवल पंजाब तक ही सीमित हो गया। हरियाणा में छुटपुट घटनाओं के अलावा उत्तर प्रदेश और कर्नाटक समेत राजस्थान में कुछ राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं ने किसानों का चोला ओढ़कर इस ‘चक्का जाम’ को सफल बनाने की कोशिश तो कि लेकिन विफल रहे, क्योंकि असल किसान अब हिंसा के बाद अपनी बदनामी और स्वाभिमान के कारण घर लौट चुका है और जो बचे अराजकतावादी हैं; उनका कहीं-न-कहीं किसी राजनीतिक पार्टी से या तो संबंध है, या वो खुद को राजनीति में स्थापित करने की योजना बना रहे हैं।

किसानों के आंदोलन की विश्वसनीयता के कम होने की एक बड़ी वजह राजनीतिक पार्टियां भी हैं। कांग्रेस, सपा, आरएलडी, आरजेडी, टीएमसी जैसे राजनीतिक दल आए दिन किसानों के आंदोलन को अपना खुला समर्थन दे रहे हैं, और धरना स्थल पर जाकर अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन पाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके चलते मोदी सरकार के लिए आंदोलन को राजनीतिक करार देकर इसे नजरंदाज करने का एक बड़ा और वाजिब कारण भी मिल गया है।

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किसानों को लेकर कहा जाता है कि वो स्वाभिमानी होने के साथ ही अपनी छवि को लेकर बेहद संवेदनशील होता है। इसीलिए, जिस दिन देश की ऐतिहासिक धरोहर लाल किले पर अराजकता हुई, उसी दिन ये किसानों का शांतिपूर्ण आंदोलन खत्म हो गया था। किसान अब अपने घरों की ओर लौटकर इस आंदोलन से खुद को अलग कर चुका है। यही कारण है कि ‘चक्का जाम’ वाली अराजकतावादी तथाकथित किसानों की नौटंकी पूरी तरह फेल रही है और इसी तरह अब आने वाले समय में ये लोग जो भी विरोध प्रदर्शन का रास्ता चुनेंगे, उसका अंत इनकी विफलता के साथ ही होगा।

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