ट्रम्प शासन के दौरान इजरायल और अमेरिका के रिश्ते इतिहास के सबसे सुनहरे दौर में थे। इजरायल और अमेरिका दोनों जगह दक्षिणपंथी सरकारें थीं और नेतन्याहू अपने देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए क्रांतिकारी कदम उठा रहे थे। ट्रम्प नेतन्याहू की नीतियों को समर्थन तो करते ही थे, साथ ही उन्होंने अमेरिका की विदेश नीति, आर्थिक और सैन्य शक्ति की मदद से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इजरायल बहुत सहायता की, लेकिन बाइडन के शासन में सब बदलता जा रहा है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बाइडन और उनकी पार्टी, नेतन्याहू और ट्रम्प के करीबी संबंधों से इस कदर चिढ़ी हुई है कि उनकी पार्टी नहीं चाहती कि इजरायल के साथ तब तक कोई भी सहयोग किया जाए,जब तक नेतन्याहू सरकार में हैं। रिपोर्ट के अनुसार एक डेमोक्रेटिक सांसद ने कहा है “जब नेतन्याहू ने तय किया कि वे ट्रम्प के साथ नजदीकी रिश्ते बनाएंगे और ओबामा की नीतियों को नजरअंदाज करेंगे, तो उन्होंने [ हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की स्पीकर ] नैंसी पेलोसी को नाराज किया और डेमोक्रेटिक पार्टी के कई कांग्रेस सदस्यों को अपने से अलग थलग कर दिया।”
नेतन्याहू से चिढ़ने का कारण यह है कि एक संप्रभु और स्वतंत्र देश का प्रधानमंत्री होने के नाते उन्होंने स्वतंत्र विदेश नीति अपनाई। नेतन्याहू ने अपने देश के हितों को अधिक महत्व दिया, ना कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के विचारों को। ट्रम्प, जो उसी अमेरिका के चयनित राष्ट्रपति थे, जिनके साथ नेतन्याहू का सहयोग करना अपराध की दृष्टि से देखा जा रहा है।
वास्तविकता यह है कि बाइडन और उनकी पार्टी संसार की किसी भी अन्य वामपंथी उदारवादी पार्टी की तरह ही असहिष्णु है। वे यह छोटी सी बात स्वीकार नहीं कर पा रहे कि नेतन्याहू एक देश के चुने हुए नेता हैं और वे अपनी नीति निर्धारण करने में स्वतंत्र हैं, भले उनकी नीतियां डेमोक्रेटिक पार्टी को नापसंद हों। उनके साथ अमेरिकी राष्ट्रपति सिर्फ इसलिए सहयोग नहीं करना चाहते क्योंकि वे अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी की विचारधारा के अनुसार नीति निर्धारण नहीं कर रहे।
ओबामा ने जब 2015 में ईरान के साथ न्यूक्लियर डील की तो इजराइल को इस बात का डर था कि एक ओर इस डील से ईरान को आर्थिक प्रतिबंध से मुक्ति मिल जाएगी, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत हो जाएगी, दूसरी ओर अमेरिका और UN जैसी अंतरराष्ट्रीय नियामक संस्थाएं, यह सुनिश्चित भी नहीं कर पाएंगी कि ईरान ने परमाणु बम का कार्यक्रम बन्द किया है, या चोरी छुपे उसे चला रहा है। इजरायल को डर था कि ऐसी स्थिति में 10-15 वर्षों में उन्हें एक परमाणु शक्ति सम्पन्न ईरान मिलेगा, जो आर्थिक रूप से भी सशक्त होगा। ऐसे में नेतन्याहू का ऐसी किसी डील का विरोध स्वाभाविक है।
किंतु बाइडन चुनाव प्रचार में यह वादा कर चुके हैं कि वह चुनाव जीतने पर ईरान से समझौता करेंगे। उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान ट्रम्प की ईरान नीति की आलोचना की थी, उनकी पार्टी ने सुलेमानी ही मौत पर भी नकारात्मक टिप्पणी करते हुए इसे युद्ध भड़काने का कदम बताया था। अब बाइडन चुनाव जीत चुके हैं और अब वे चाहते हैं कि जल्द से जल्द ईरान के साथ वह किसी समझौते पर पहुँचे।
हालांकि बाइडन भी समझ रहे हैं कि यह समझौता आसान नहीं है। उनके हालिया बयान यही दर्शाते हैं कि उन्हें जमीनी हकीकत समझ आ रही है कि ईरान एक धूर्त देश है। हाल ही में ईरान ने यूरेनियम संवर्धन करना शुरू किया था। ऐसे में बाइडन नेतन्याहू जैसे कट्टर राष्ट्रवादी से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह किसी भी स्थिति में ईरान से समझौते के लिए तैयार होंगे।यही कारण है कि बाइडन चाहते हैं कि नेतन्याहू अगले चुनावों में हार जाएं, तो नए इजराइली प्रधानमंत्री के साथ नए सिरे से बातचीत हो।
अगला चुनाव इसी वर्ष मार्च में होना है।पहले इसकी उम्मीद थी कि नेतन्याहू की हार तय है किंतु बदलते हालात में अप्रत्याशित चुनाव परिणाम भी सामने आ सकते हैं। इस समय इजराइल में वैक्सीनेशन बहुत बेहतर ढंग से हो रहा है। आबादी के प्रतिशत के हिसाब से सबसे ज्यादा वैक्सीन डोज, इजराइल में लगाए गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक हर 100 आदमी पर 74 डोज दिए गए हैं, जो बताता है कि नेतन्याहू प्रशासन बहुत बेहतर ढंग से कोरोना के विरुद्ध जंग लड़ रहा है, साथ ही विदेश नीति के मोर्चे पर भी नेतन्याहू के पास अब्राहम एकॉर्ड जैसी बड़ी उपलब्धि है।
ऐसा लगता है कि बाइडन द्वारा नेतन्याहू को हटाने का सपना सपना ही रह जाएगा। ऐसे में बाइडन को अपनी इजराइल विरोधी नीति बदलनी चाहिए और नेतन्याहू के साथ ही सहयोग करने के लिए काम शुरू करना चाहिए। बाइडन अपनी बेवकूफी से अमेरिका के सहयोगियों को उससे दूर करते जा रहे हैं। उन्हें प्रयास करना चाहिए कि इस सूची में इजराइल का नाम न जुड़े, क्योंकि ऐसा होने से अमेरिका को ही नुकसान होगा।
आज इजराइल और सऊदी अरब दोनों ईरान से परेशान हैं और उसके खिलाफ साथ में सहयोग करने को तैयार हैं। चीन ईरान के पक्ष में है, ऐसे में इजराइल और सऊदी को किसी बड़े सहयोगी की आवश्यकता है। पहले ये भूमिका अमेरिका निभाता था, किंतु बाइडन की नीतियां सऊदी और इजराइल को मजबूर करेंगी की वे किसी नए सहयोगी की तलाश करें। हाल ही में फ्रांस ने इस मामले में रुचि दिखाई है और भारत भी पश्चिम एशिया में बड़ी भूमिका निभाने को उत्सुक है। ऐसे में नेतन्याहू का केवल इसलिए विरोध करना क्योंकि उनके ट्रम्प से अच्छे सम्बंध थे या वे ओबामा के बजाए ट्रम्प की नीतियों को पसंद करते थे, ये सरासर मूर्खता है। यह मूर्खता अमेरिका को पश्चिम एशिया क्षेत्र में पूर्णतः अप्रासंगिक बना देंगे।