बलात्कार का झूठा आरोप और 20 साल की जेल, SC/ST एक्ट के तहत दर्ज हुआ था मुकदमा

बेबुनियाद आरोप और 20 साल की सज़ा

किसी देश का कानून, व्यवस्था को बनाए रखने और समाज में शांति का माहौल बनाने में मदद कर करता है लेकिन जब किसी कानून का इस्तेमाल एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के विरुद्ध अपने फायदे के लिए होने लगता है तो फिर उस कानून में बदलाव की आवश्यकता होती है। पिछले दिनों एक खबर आयी कि एक व्यक्ति SC/ST एक्ट के तहत  बलात्कार के आरोप में 20 वर्षों से कैद था जो अब जा कर निर्दोष साबित हुआ है। आखिर हमारे देश का कानून किस प्रकार से उस व्यक्ति के गुज़रे हुए 20 वर्ष वापस कर सकता है ?

यह तो सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसे ना जाने कितने उदाहरण देश में भरे पड़े है जो न केवल यह दिखाते कि कैसे SC/ ST का दुरुपयोग होता है बल्कि उसका इस्तेमाल आपसी रंजिश के कारण भी किया जा रहा है।

दरअसल, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में Scheduled Castes and the Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989 (Vishnu v. State of UP) के तहत बलात्कार, आपराधिक धमकी जैसे आरोपों के कारण 20 साल से जेल में बंद एक व्यक्ति को आरोप मुक्त किया है।

डॉ कौशल जयेंद्र ठाकर और गौतम चौधरी की पीठ ने एक ऐसे व्यक्ति को बरी कर दिया जो झूठे बलात्कार और दलित अत्याचार मामले में बीस साल से अधिक समय तक जेल में रहा।

रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने पाया कि घटना की तारीख, यानी 16.9.2000 से आरोपी जेल में है यानी 20 साल से। उस व्यक्ति को आईपीसी की धारा 376, 506 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 (1) (xii) के साथ धारा 3 (2) (v) के तहत गिरफ्तार किया गया था।

अब जाकर कोर्ट ने तथ्यों और चिकित्सा रिपोर्टों को सुनते हुए मामले को खारिज कर दिया और आरोपी को आपसी रंजिश का शिकार पाया।

मेडिकल रिपोर्ट में चोटों और यौन हमले का कोई संकेत नहीं है। इसके अलावा, अदालत ने पाया कि शिकायतकर्ता ने शिकायत एक ही मकसद के कारण की थी। दोनों पक्षों के बीच पहले से भूमि विवाद था जिसके कारण अभियोजन पक्ष ने यौन उत्पीड़न के मामले को दायर किया ।

सुनवाई के दौरान, अदालत ने दोहराया कि अगर कोई भूमि विवाद में हैं तो उस व्यक्ति के खिलाफ SC/ST अधिनियम के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है। कोर्ट के अनुसार, “हमारी जाँच पड़ताल में, चिकित्सा प्रमाण यह स्पष्ट करते है कि डॉक्टर को किसी भी प्रकार का शुक्राणु नहीं मिला था। डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से कहा कि जबरन संभोग का भी कोई संकेत नहीं मिला और ना ही किसी प्रकार की अंदरूनी चोट थी।”

रिकॉर्ड पर तथ्यों और सबूतों के मद्देनज़र, अदालत ने आश्वस्त किया था कि आरोपी को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है, इसलिए आदेश को बदल कर आरोपी को बरी कर दिया गया।

बता दें कि इकोनोमिक टाइम्स कि रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने बताया था कि 2016 में SC/ST एक्ट के अंदर 8900 केस गलत थे। राजस्थान पुलिस के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत 2020 में राजस्थान के अंदर 40 प्रतिशत से अधिक मामले फर्जी पाए गए। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2018 में यह कहा था कि ये निर्दोष नागरिकों और पब्लिक सर्वेंट को “ब्लैकमेल” करने का एक साधन बन गया है।

1989 अधिनियम जातिवादी अपमान को दंडित करता है और यहां तक कि संदिग्ध अपराधियों को अग्रिम जमानत भी नहीं देता था। फिर अदालत ने कहा कि कानून का इस्तेमाल केवल शिकायतकर्ता की शिकायत मात्र से आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लूटने के लिए किया जाता है। न्यायमूर्ति गोयल ने तब लिखा कि यदि अभियुक्त Prima Facia के तहत यह साबित करने में सक्षम हो कि उसके खिलाफ लगाए गए आरोप निराधार है तो उसे अग्रिम जमानत की अनुमति दी जानी चाहिए।

यानी देखा जाए तो इस कानून का जितना उपयोग होता है, उससे अधिक दुरुपयोग होता है। एक व्यक्ति के जीवन के 20 वर्ष जेल में ही गुजर गये वो भी केवल झुठे आरोपों के आधार पर, इससे बड़ी विडंबना शायद ही हो सकती है। हालांकि, कोर्ट ने संज्ञान लेकर अब शिकायत मात्र से जेल वाली प्रथा तो समाप्त कर दी है, लेकिन अभी भी इस कानून में सुधार की आवश्यकता है जिससे ना सिर्फ SC/ ST का भला हो बल्कि आम नागरिकों का भी भला हो।

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