पाटीदार अरविंद केजरीवाल का समर्थन नहीं करने वाले, जमीनी हकीकत तो यही कहती है

पाटीदार

हाल ही में गुजरात में 6 नगर पालिकाओं के 576 सीटों के लिए चुनाव सम्पन्न हुए, और साथ ही साथ राज्यसभा के 2 सीटों के लिए भी चुनाव हुए। दोनों ही जगह भाजपा ने बाज़ी मारी है, और ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रधानमंत्री मोदी का प्रभाव गुजरात में अभी भी बरकरार है। लेकिन यही एक बात नहीं है। इन चुनावों से ये भी स्पष्ट हुआ है कि पाटीदार समुदाय किसी एक पार्टी की जागीर नहीं है, और न ही इनके ऊपर उपद्रवी तत्वों का कोई भी विशेष प्रभाव पड़ा है।

अब इसका चुनाव से क्या संबंध है? दरअसल, आम आदमी पार्टी ने पहली बार गुजरात के निकाय चुनाव में हिस्सा लिया, जहां उसने राजकोट और सूरत दोनों में ही कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी। एक वक्त को ऐसा भी लगा कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस को सूरत के नगरपालिका चुनाव में नंबर तीन पर ही धकेल देगी। इससे उत्साहित होकर आम आदमी पार्टी ये दावा कर रही है कि अब गुजरात तक उसकी पहुंच हो चुकी है, और जल्द ही वह गुजरात में भाजपा को टक्कर देने योग्य होगी।

अब इसमें कोई दो राय नहीं है कि वह किस समुदाय के आधार पर ऐसा दावा सोशल मीडिया पर कर रही है। राजकोट और सूरत में पाटीदार समुदाय का प्रभुत्व अधिक है, और इसके साथ-साथ आम आदमी पार्टी का उद्देश्य गुजराती दलितों को भी अपने पाले में करना है। लेकिन वास्तविकता तो कुछ और ही बताती है। 2015 में पाटीदार समुदाय को आरक्षण दिलाने के नाम पर पाटीदार आंदोलन समिति के अध्यक्ष हार्दिक पटेल ने खूब उत्पात मचाया था। जगह जगह गुजरात में दंगा भड़काने का प्रयास किया गया था। इतना ही नहीं, पाटीदार समुदाय से लेकर पिछड़े वर्गों तक में ये दुर्भावना फैलाई गई कि भाजपा उन्हें कुचलने के लिए कुछ भी कर सकती है, जिसका फायदा राजनीतिक पार्टियों ने भी खूब उठाया।

सच्चाई तो यह है कि पाटीदार समुदाय कभी भी इतना पिछड़ा नहीं था जितना हार्दिक पटेल जैसे लोग दावा करते हैं। इसके अलावा पाटीदार जाट या पिछड़े वर्गों की भांति एक ही दिशा में वोट नहीं देते। परंतु जिस प्रकार से विपक्ष ने उन्हें आरक्षण का झुनझुना पकड़ाया, और विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें दरकिनार करने का प्रयास किया, उसे पाटीदार समुदाय भूला नहीं है।

जन आंदोलन और राजनीतिक फायदे के लिए किये गए आंदोलन में सबसे बड़ा अंतर यही है कि जन आंदोलन के लिए आपको छल कपट का सहारा नहीं लेना पड़ता। लेकिन ये बात कांग्रेस को समझ नहीं आई, और इसीलिए लाभकारी स्थिति में होने के बावजूद वे एक बार फिर गुजरात का विधानसभा चुनाव हार गए, जहां उन्हे 77 सीटें प्राप्त हुई। यदि वास्तव में पाटीदार उनके साथ होते, तो भाजपा न जाने कब का सत्ता से बाहर हो गई होती।

इस आंदोलन से हार्दिक पटेल, अलपेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी जैसे उग्रवादी भी उभर कर आए, जिन्हे काँग्रेस ने हाथों हाथ लेते हुए उन्हे खूब बढ़ावा भी दिया, ताकि 2017 के विधानसभा चुनाव तक आते आते पाटीदार समुदाय की ओर से भाजपा को एक भी वोट न मिले। लेकिन वे यथार्थ को समझने में भूल कर गए, और एक बार फिर यही भूल अरविन्द केजरीवाल और उसकी पार्टी कर रही है।

2017 के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने गाजे बाजे के साथ गुजरात का विधानसभा चुनाव लड़ने का निर्णय किया। 30 सीटों पर उन्होंने अपने उम्मीदवार भी उतारे, लेकिन तब तक पाटीदार आंदोलन समिति का असली चेहरा सबके सामने आ चुका था, और आम आदमी पार्टी को किसी ने पानी भी नहीं पूछा। 30 सीटों में से लगभग 20 से अधिक सीटों पर आम आदमी पार्टी ने जमानत जब्त करवाई, और कुछ पर तो उसके उम्मीदवारों को 100 से भी कम वोट मिले।

ऐसा लगता है कि अरविन्द केजरीवाल ने इन सब से कोई सीख नहीं ली है, और वे एक बार फिर अपनी और अपनी पार्टी की भद्द पिटवाने चले हैं। अरविन्द केजरीवाल किसान कानून के कथित विरोध से बने माहौल को भुनाने के लिए एक बार फिर गुजरात में अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं, लेकिन अब पाटीदारों के सामने उसकी या उसके पार्टी की एक न चलने वाली।

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