West नहीं चाहता कि भारत फिर भारतवर्ष बने इसलिए वह PM मोदी को हराने की पूरी कोशिश कर रहा है!

भारत के भारतवर्ष बनने के सपने पर West की पैनी नज़र!

वाराणसी मॉडल

ब्रिटिश इतिहासकर Angus Maddison के अनुसार आज से करीब 1 हज़ार वर्षों पूर्व तक वैश्विक GDP में भारत का योगदान करीब 40 प्रतिशत से भी ज़्यादा था। दुनिया का अधिकतर व्यापार भारत और चीन द्वारा ही किया जाता था और यहाँ के लोग विश्व में सबसे अधिक सम्पन्न थे। हालांकि, औद्योगीकरण में पिछड़ने के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान लगातार कम होता गया। विदेशी आक्रांताओं के हमलों और अंग्रेजों के 200 वर्षों के शासन के बाद भारत की अर्थव्यवस्था का इतना बुरा हाल हो गया कि मौजूदा समय में वैश्विक GDP में कुल योगदान सिर्फ 7 प्रतिशत ही रह गया है।

लेकिन यहाँ बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत अपने इतिहास को दोहरा सकता है? क्या भारत के पास ऐसा करने के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं?
भारत के पास मानव संसाधन की कोई कमी नहीं है और संसाधनों के दृष्टिकोण से भी भारत सदैव एक सम्पन्न देश रहा है, लेकिन स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार की गलत नीतियों ने भारत में कई ऐसी समस्याओं को जन्म दे दिया है, जो प्राकृतिक ना होकर शत-प्रतिशत मानव निर्मित हैं। ऐसी ही नीतियों में से एक रही है भारत की अप्रभावी कृषि नीति, जिसने देश में एक नहीं, सैकड़ों समस्याओं को जन्म दिया है। वर्ष 2019 में भारत में गरीबी दर 7 प्रतिशत थी, और अब व्यसक निरक्षरता दर करीब 27 प्रतिशत है, बेरोज़गारी तकरीबन 7 प्रतिशत है और यह कहीं न कहीं खराब कृषि नीति से ही जुड़ा है। वर्ष 2015 के एक आंकड़े के अनुसार भारत की करीब 53 प्रतिशत आबादी कृषि सेक्टर पर ही निर्भर थी।

हैरानी की बात तो यह है कि देश के विकास के लिए इतने महत्वपूर्ण सेक्टर को लेकर केंद्र सरकार ने कभी वह गंभीरता दिखाई ही नहीं, जो उसे दिखानी चाहिए थी। भारत सरकार ने किसानों के उत्थान के लिए किसानों को सब्सिडी और Minimum Support Price देने जैसी योजनाओं की शुरुआत की, लेकिन हरियाणा और पंजाब के बाहर आज भी हजारों किसानों को आत्म-हत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। The Hindu की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019-20 में भारत ने अपने कुल बजट के भारी-भरकम 11 प्रतिशत हिस्से को सिर्फ कृषि संबन्धित योजनाओं पर खर्च किया था। वर्ष 2018 में भारत ने MSP पर फसलों की खरीद के लिए करीब 250 बिलियन रुपये खर्च किए थे।

हालांकि, आज भी किसानों का कुछ भला हो नहीं पाया है। किसान हमेशा से देश के राजनेताओं के हाथ का खिलौना बने रहे। राजनीतिक भाषणों में किसानों का भरपूर ज़िक्र होता रहा। चुनावी वादों में किसानों के कर्ज़-माफी का मुद्दा शुरू से ही स्थायी रहा है, इसके बावजूद देश के किसानों की आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।

बदलाव आएगा भी नहीं, जब तक कृषि नीतियों में बदलाव नहीं किया जाता! और वर्ष 2020 में मोदी सरकार ने ठीक वही किया। कृषि सेक्टर को बदलकर रख देने वाले तीन कृषि बिलों को संसद द्वारा कानून का रूप दिया गया! यह सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि कृषि सेक्टर की सूरत बदल देने वाले ये कानून सीधे तौर पर  भारत की आधी आबादी को प्रभावित करेंगे! पंजाब के नकली और एजेंडावादी किसानों द्वारा शुरू किया गया Farmers Protest पूरे देश के किसानों के मत को नहीं दर्शाता हैं। देश के अन्य राज्यों के किसानों को नए क़ानूनों के बाद कई गुना फायदा हुआ है। ज़ाहिर है कि अगर किसान आर्थिक रूप से सम्पन्न होंगे, तो भारत की आधी आबादी पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा। देश में गरीबी में तेजी से कमी आएगी, लोग ज़्यादा पढ़ लिख पाएंगे और भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास देखने को मिलेगा।

भारत के किसान आगे बढ़ेंगे तो भारत के करीब 70 करोड़ लोगों पर इसका सकारात्मक आर्थिक प्रभाव होगा, जो भारत को उसका इतिहास दोहराने में सहायता कर सकता है। भारत ऐसा करके तेजी से वैश्विक GDP में अपने योगदान को बढ़ा सकता है। और शायद यही कारण है कि आज अधिकतर पश्चिमी देशों में भारत की मौजूदा कृषि नीतियों के समर्थन में आवाज़ें सुनने को मिलती है। ऐसी नीतियाँ, जिन्हें ये सभी पश्चिमी देश खुद नकार चुके हैं, वे उन नीतियों को बरकरार रखना चाहते हैं। अमेरिका और विकसित यूरोपीय देश उसी Open market system का अनुपालन करते हैं, जिसे अब मोदी सरकार ने भारत में लागू किया है।

ये वही पश्चिम देश हैं जो सरकार द्वारा देश-विरोधी NGOs के खिलाफ उठाए गए किसी भी कदम की घोर निंदा करते हैं। विदेशी NGOs समय-समय पर भारत सरकार के सुधारवादी कदमों का विरोध करते रहे हैं और भारत में होने वाले औद्योगीकरण के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं। मोदी सरकार ने आते ही Foreign Contribution Regulation Act के तहत ऐसे एजेंडावादी NGOs पर भी लगाम लगाई, जिसका पश्चिम में भरपूर विरोध देखने को मिला।

अब फिर मोदी सरकार द्वारा लाये गए इन कानूनों का पश्चिम में विरोध हो रहा है, क्योंकि इनके लागू होने के बाद भारत के आर्थिक सुपरपावर बनने के सपनों को पंख लगेंगे, जो पश्चिम के आर्थिक प्रभाव को काफी कम कर देगा। अमेरिका, UK और यूरोप में जारी भारत विरोधी अभियान सिर्फ तीन कृषि कानूनों के विरोध को लेकर नहीं है, बल्कि आर्थिक सुपरपावर बनने के रास्ते में रोड़े अटकाने को लेकर भी है।अगर कृषि सेक्टर में प्राइवेट सेक्टर की भूमिका बढ़ेगी, तो इससे सरकार पर कृषि सेक्टर का बोझ कम होगा। उसके बाद सरकार अपने भारी-भरकम बजट को देश के अन्य विकास कार्यों में लगा पाएगी! ऐसी स्थिति भारत के लिए तो अच्छी होगी, लेकिन यह पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रभाव को मिट्टी में मिला देगी! यही कारण है कि भारत के कृषि सेक्टर reforms के खिलाफ अब पश्चिम देशों में मोदी सरकार के खिलाफ इतना बड़ा अभियान देखने को मिल रहा है।

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