भारत के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कई बार इस बात को दोहराया कि कैसे भारत जी 20 समूह में इकलौता ऐसा देश है, जो पेरिस पर्यावरण एकॉर्ड का अक्षरश: पालन कर रहा है। यही बात उन्होंने सोमवार को भी दोहराया। निस्संदेह ये बात गलत नहीं है, पर अब समय आ गया है कि भारत इस विषय पर थोड़ा आक्रामक भी बने, और गुड बॉय बने रहने की प्रवृत्ति तक ही सीमित न रहे। भारत ने हमेशा यह कहा है कि वह काबर्न उत्सर्जन पर अपने लक्ष्य को लेकर प्रतिबद्ध है परन्तु अन्य देश कितने प्रतिबद्ध हैं?
क्या जलवायु परिवर्तन विश्व के लिए एक अहम मुद्दा होना चाहिए? हाँ। क्या इसपर तुरंत चर्चा होनी चाहिए? अवश्य। क्या विकसित देशों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए? निस्संदेह! लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है, क्योंकि दुनिया का एक ही नारा है – अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता। ये प्रवृत्ति न सिर्फ चिंताजनक है, बल्कि इसे बदलने की बेहद सख्त आवश्यकता है।
भारत यदि पेरिस एकॉर्ड का पालन कर रहा है, तो ये अच्छी बात है, लेकिन इसका दारोमदार केवल भारत पर ही नहीं होना चाहिए, और न ही भारत को यह लड़ाई अकेले लड़ने के लिए बाध्य होना चाहिए। पेरिस एकॉर्ड का अक्षरश: पालन कर कहीं न कहीं भारत अपने आर्थिक प्रगति की गति को काफी धीमा कर रहा है। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हमें पेरिस समझौते से मुंह मोड़ना चाहिए, परंतु हमें इस विषय पर एक संतुलित और आक्रामक रुख अपनाना चाहिए, ताकि पर्यावरण की भी रक्षा हो और हमारे देश की आर्थिक प्रगति को कोई नुकसान भी न पहुंचे।
भारत ने जलवायु परिवर्तन के लिए अकेले काम करने का ठेका नहीं ले रखा है, और ये बात हमें आक्रामकता के साथ जतानी होगी। जी 20 में भारत के अलावा अमेरिका, तुर्की, मेक्सिको, ब्राजील, चीन, सऊदी अरब जैसे देश भी हैं, जो प्रदूषण को कम करने को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं हैं।
अगर आंकड़ों की बात की जाए, तो आपको पता चलेगा कि कैसे विकसित देशों को पर्यावरण की रक्षा से कोई मतलब नहीं है। सबसे ज्यादा प्रदूषण को मापने का एक पैमाना है किसी देश के कार्बन उत्सर्जन/फुटप्रिंट का साइज़ मापना, जिसके अनुसार चीन और अमेरिका का कुल हिस्सा दुनियाभर के प्रदूषण में 43 प्रतिशत से भी अधिक है। चीन तो सबसे अधिक प्रदूषण करता है और उसका कार्बन उत्सर्जन/फुटप्रिंट भी सबसे बड़ा है, लेकिन क्या इसके विरुद्ध कोई आवाज उठाता है, या चर्चा करने का प्रयास भी करता है? अमेरिका में भी वायु प्रदूषण कम नहीं है, और तो और एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका के उन शहरों में कोरोना संक्रमण से मौत होने के ज्यादा मामले सामने आये हैं जिनमें वायु प्रदूषण का स्तर तुलनात्मक रूप से अधिक है. वास्तव में विकसित देश ही तापमानवर्धक गैसों के लिए सबसे सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। विकसित देश ही तापमान बढ़ाने वाली गैसों के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। इस बात पर प्रधानमंत्री मोदी ने कई बार प्रकाश भी डाला है परन्तु आक्रामक रुख नहीं अपनाया है।
हालांकि, भारत के पास कहने को 3सरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जन/फुटप्रिंट है, लेकिन विश्व के अन्य देशों की तुलना में हमारे यहाँ प्रदूषण की मात्रा में काफी कमी भी आई है। ऐसे में यदि भारत ये दावा कर रहा है कि वह जलवायु परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्ध होने वाला एकमात्र देश है, तो ये कहीं न कहीं भारत की नासमझी की ओर भी इशारा कर रहा है। भारत को असल में इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि कैसे जी 20 और दुनिया के अन्य देश पेरिस एकॉर्ड को यदि अक्षरश: नहीं तो कम से कम उसके मूल सिद्धांतों का ही अनुसरण करे।
भारत के तमाम प्रयासों के बाद भी उसे जलवायु परिवर्तन का दोषी ठहराने का प्रयास किया जाता है, और ग्रेटा थनबर्ग जैसे स्वघोषित पर्यावरणवादी भारत को नीचा दिखाने का एक भी अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देते। ऐसे में भारत किसे खुश करना चाहता है? समय की मांग तो यह है कि मोदी सरकार अन्य विषयों पर जितना आक्रामक है, उतना ही आक्रामक वह जी 20 समूह के देशों को पेरिस एकॉर्ड का पालन करने में भी दिखाए, अन्यथा अकेले दम पर पर्यावरण के लिए लड़ना ठीक वैसा ही है जैसे अकेले झाड़ू लेकर आंधी को रोकने की हिमाकत करना।