जब अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव प्रचार चल रहा था तब जो बाइडन ने दावा किया था की डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका वैश्विक नेतृत्व को खो चुका है। परंतु अब राष्ट्रपति बने दो महीने भी नहीं हुआ कि जो बाइडन डोनाल्ड ट्रंप द्वारा अपनाए गई विदेश नीति को ही अपना रहे हैं, वह भी अपना ठप्पा लगा कर।
सत्ता में आने के बाद, बाइडन ने घोषणा की थी कि, “America is back” लेकिन अब उन्हें ही ट्रंप की नीतियों को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि बाइडन ट्रम्प-युग की विदेश नीति में कुछ बदलाव करना चाहते थे, लेकिन अमेरिका के सहयोगी जैसे भारत और जापान ने उन्हें सफलतापूर्वक रोक दिया।
आइए देखें कि कैसे बाइडन प्रशासन ट्रम्प-युग की नीतियों को दोहरा रहा है और उनका पुन: समर्थन कर रहा है लेकिन अपने नाम के साथ।
पश्चिमी एशिया:
अब, किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए पश्चिमी एशिया, विदेश नीति के हिसाब से सबसे जटिल क्षेत्र माना जाता है। ट्रम्प ने हालांकि इसे बेहद सरल रखा था और शांति बनाने की भरपूर कोशिश की। उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में इस क्षेत्र में कोई नया युद्ध नहीं लड़ने का अपना वादा निभाया। राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपने प्रमुख सहयोगियों- इजराइल और अरब पर भी भरोसा किया और अपने कार्यकाल के अंत में, उन्होंने कुछ अरब देशों और इजरायल के बीच “Abraham Accord” को भी सफलतापूर्वक करवाया। उनकी नीति ईरान के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चे को बनाने की थी जिससे तेहरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने के लिए “अधिकतम दबाव” बनाया जा सके।
दूसरी ओर, बाइडन ने सत्ता में आने के बाद अजीब तरीके से शुरुआत की। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के प्रति अपनी घृणा जाहिर करने के लिए उनकी नीतियों को बदलना शुरू किया और इजरायल के पीएम बेंजामिन नेतन्याहू को नजरअंदाज करना शुरू किया जिन्हें ट्रम्प का करीबी माना जाता था।
यही नहीं बाइडन ने सऊदी अरब के वास्तविक नेता, क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को ठगने की योजना के साथ अरबों को मजबूत करने की कोशिश की। इसके अलावा, अपने पूर्व बॉस ओबामा की नीतियों के अनुरूप, बाइडन ने ईरान पर नरम रुख अपनाने की कोशिश की।
लेकिन चीजों को वापस सामान्य होने के लिए शुरू होने में बहुत समय नहीं लगा। इजरायल के दबाव ने बाइडन को तेहरान से दूरी बनाने के लिए मजबूर किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि बाइडन ने ईरान पर प्रतिबंधों को बढ़ाने वाले फैसले पर हस्ताक्षर किया। साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति ने अमेरिका-इज़राइल के सहयोग को बढ़ाने की मजबूरी महसूस की है। इसके अलावा, कम से कम एक आधिकारिक स्तर पर, बाइडन ट्रम्प-युग के अब्राहम एकॉर्ड का समर्थन करते हैं।
यानी देखा जाए तो बाइडन अब वही कर रहे है जो ट्रम्प कर रहे थे। सऊदी अरब के खिलाफ बाइडन प्रशासन की टिप्पणी शायद एकमात्र अपवाद है, लेकिन वह भी बहुत जल्दी ही समाप्त हो सकती है।
इंडो पैसिफिक:
ट्रम्प की इंडो-पैसिफिक नीति ने उन्हें अद्वितीय और विशेष बना दिया है। वे एक ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति थे, जिन्होंने चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध छेड़ने और पेपर ड्रैगन के खिलाफ एक वैश्विक तंत्र तैयार करने का इरादा दिखाया। ट्रम्प ने फ्री और ओपन इंडो-पैसिफिक (एफओआईपी) नीति को अपनाकर इंडो-पैसिफिक में अमेरिकी प्रभाव को पुनर्जीवित किया। उन्होंने QUAD- यानी जापान, अमेरिका, भारत और ऑस्ट्रेलिया को शामिल करते हुए एक अनौपचारिक रणनीतिक मंच को अद्वितीय महत्व दिया।
हालांकि बाइडन ने शुरुआत में QUAD को अलग करने की कोशिश की और साथ ही वे बीजिंग पर नरम होने के मूड में भी थे। यहां तक कि शिनजियांग में उइगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार पर चीन को क्लीन चिट देने को कोशिश भी की गई। फिर भी, QUAD ने बाइडन को अधिक पांव फैलाने की अनुमति नहीं दी।
आज, बाइडन अपने QUAD सहयोगियों को अपने पाले में करने के लिए फ्री और ओपन इंडो-पैसिफिक नीति अपनाने के लिए मजबूर हुए हैं। यही नहीं बाइडन अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन को भारत भेजने, जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा की मेजबानी करने और फ्री और ओपन इंडो-पैसिफिक के संदर्भ में बोलने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
हाल के QUAD शिखर सम्मेलन में, बाइडन को यहां तक कि प्रचार करते हुए देखा गया जिसे ट्रम्प की पंक्ति के रूप में वर्णित किया जा सकता है। उन्होंने कहा, “हम अपनी प्रतिबद्धताओं को जानते हैं … हमारा क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय कानून द्वारा संचालित है, सभी सार्वभौमिक मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध है और जबरदस्ती से मुक्त है लेकिन मैं हमारी संभावना के बारे में आशावादी हूं।”
यूरोप / अटलांटिक:
ट्रम्प एक व्यावहारिक यानी प्रैक्टिकल व्यक्ति थे, जिन्होंने क्रॉस-अटलांटिक संबंधों का प्रतीक बन चुके NATO को और अप्रासंगिक बनाया। उन्होंने अपना ध्यान अटलांटिक से इंडो-पैसिफिक में स्थानांतरित किया जो समय की मांग थी। सामरिक विश्व व्यवस्था में अब अटलांटिक से अधिक महत्व इंडो-पैसिफिक की है। आज अमेरिका-रूस प्रतिद्वंद्विता अब अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता में बदल चुका है।
इसके अलावा, जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल द्वारा ट्रंप के वैश्विक नेतृत्व को स्वीकार करने से इनकार करने के बाद अमेरिका और यूरोप के बीच संबंधों कम हुए।
दूसरी ओर, बाइडन ने अमेरिका के वैश्विक नेतृत्व को खोने और पुराने सहयोगियों को छोड़ने के लिए ट्रंप की आलोचना की थी। बाइडन यह दावा करते थे कि वह अमेरिका-यूरोपीय संघ के संबंधों को मजबूत करेंगे। यहां तक कि उन्होंने रूस कार्ड खेलने और नाटो को पुनर्जीवित करने की भी कोशिश की।
लेकिन असली मुद्दा यह है कि यूरोप का एक बड़ा हिस्सा भी स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनना चाहता है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने रणनीतिक स्वायत्तता को खूब बढ़ावा दे रहे हैं। और वह चीन तथा अमेरिका जैसी बड़ी शक्तियों से दूर स्वयं यूरोप का नेतृत्व करने की क्षमता दिखा रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका-यूरोप संबंधों में कमी आनी ही थी। इसमें बाइडन चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते हैं।
बाकी दुनिया:
ट्रम्प की दुनिया के लिए एक सरल नीति थी। हर किसी को खुद के लिए फैसला करना होगा तथा अब अमेरिका हर किसी के मामले में अपनी नाक अड़ाना कम करेगा।
ट्रम्प ने पश्चिमी एशिया तथा अफगानिस्तान से सैनिकों को वापस लाने का एक चुनावी वादा किया था।उन्होंने वादे को पूरा करने पर काम भी किया।
बेशक, बाइडन, हस्तक्षेप वादी लॉबी के अंतर्गत आते हैं। लेकिन एक औसत अमेरिकी अपने अमेरिकी सैनिकों को घर से दूर रखने के लिए करदाताओं के पैसे का उपयोग करने वाले प्रशासन को पसंद नहीं करता है। Military-industrial complex को चालू रखने के लिए नए युद्ध लड़ना और सैनिकों को भेजना, अब अलोकप्रिय कदम हो चुका है। इसलिए, ऐसा लगता है कि बाइडन कोई नई लड़ाई नहीं छेड़ेंगे। वह अंततः ट्रंप की शांति पहलों को रिब्रांड कर दुनिया के सामने रखेंगे।
शुरू में तो बाइडन बहुत जोश में आए लेकिन दो महीने से भी कम समय में वह ट्रंप की नीतियों पर चलने के लिए मजबूर हुए।