बंगाल के जलपाईगुड़ी में शनिवार को चाय बागान के मजदूरों ने एलान किया कि आने वाले चुनावों में वो लोग अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करेंगे। बागान मजदूरों ने बंगाल विधानसभा चुनावों का बहिष्कार किया है। उनका कहना है कि राष्ट्रीय राजमार्ग 31 को New Glencoe चाय बागान से जोड़ने कि उनकी मांग को वर्षों से दरकिनार किया गया है।
यह कोई पहला आंदोलन नहीं है, वस्तुतः बागान श्रमिकों की हालत बंगाल और आसाम चुनावों का एक मुख्य मुद्दा है। इसके पूर्व जनवरी माह में सिलीगुड़ी में दार्जलिंग चिया कमान मजदूर यूनियन कि ओर से भी दागापुर स्थित श्रम कार्यालय में न्यूनतम मजदूरी को लेकर धरना हुआ था। असम हो या बंगाल, दोनों ही राज्यों में बागान श्रमिकपन कि स्थिति बहुत खराब रही है।
हालांकि असम में भाजपा शासन आने के बाद हालात काफी बदले हैं। केंद्र सरकार ने बजट में असम और पश्चिम बंगाल में चाय के बागानों में काम करने वालों, खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए एक हजार करोड़ रूपये का प्रस्ताव किया है। साथ ही असम में मजदूरों की प्रतिदिन मजदूरी 50 रूपये बढ़ा दी गई है। साथ ही असम सरकार ने “असम चाह बगीचा धन पुरस्कार मेला“ योजना के तहत इस वर्ष असम के 7.47 लाख चाय बागान मजदूरों को तीन तीन हजार रूपये की राशि दी गई है। यह इस योजना की तीसरी किश्त है। वर्ष 2017-18 में शुरू हुई इस योजना के तहत पहले चरण में 6,33,411 बैंक अकाउंट में ढाई ढाई हजार रूपये की राशि दी गई थी, जबकि दूसरे चरण में वर्ष 2018-19 में 7,15,979 खातों में 2500 रूपये की सम्मान राशि पहुंची।
असम सरकार ने 8 लाख बागान मजदूरों के बैंक खाते खुलवाए हैं और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा है। उन्हें बैंकिंग सिस्टम से जोड़ने के कारण अब केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा मिलने वाली आर्थिक मदद बिना भ्रष्टाचार का शिकार हुए सीधे इन लोगों के खातों में जा रही है। बैंक खातों के कारण अब ये बागान मजदूर सरकार की आयुष्मान भारत जैसी योजनाएं से भी जुड़ सकते हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने असम में एक कार्यक्रम के दौरान कहा “(असम में) आयुष्मान भारत जैसी महत्वाकांक्षी योजना की सहायता दी जा रही है जिससे उन्हें बिना लम्बी कागजी कार्रवाई के चिकित्सीय सुविधा मिल जाए।”
बता दें की असम और बंगाल में बागान मजदूरी पर निर्भर रहने वालों की अच्छी खासी संख्या है। बागान मजदूरी से जुड़े आदिवासी असम की कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत हैं। किन्तु इसके बाद भी पिछली सरकारों में इन्हे उपेक्षित ही रखा गया। वही बंगाल की बात करें तो यहां भी बागान मजदूरों की संख्या करीब 3 लाख है। वैसे तो उत्तरी बंगाल में कुल 65 सीट हैं लेकिन कुल 15 सीट ही ऐसी हैं जहां इन बागान मजदूरों का प्रभाव अधिक है। यही कारण है की तुष्टिकरण की राजनीती में फंसी रहने वाली बंगाल सरकार ने अब तक इन लोगों को उपेक्षित कर रखा था।
किन्तु जब भाजपा सरकार ने बागन मजदूरों की सुध ली तब ममता बनर्जी सहित अन्य दलों को इनकी चिंता हुई। केंद्र के बजट में 1000 करोड़ रूपये आवंटित करने के बाद बंगाल सरकार ने 150 करोड़ रूपये आवंटित किये। किन्तु इसी बंगाल सरकार ने मुस्लिम वोटबैंक को साधने के लिए अपना खजाना खोल रखा है। वर्ष 2019-20 में ममता बनर्जी ने मदरसों के लिए 4016 करोड़ आवंटित किये जबकि इसी दौरान उच्च शिक्षा के लिए 3964 करोड़ रूपये आवंटित हुए। ममता के पास मदरसों के संचालन के लिए हजारों करोड़ रूपये हैं किन्तु बागान मजदूरों के लिए उन्होंने मात्र 150 करोड़ रूपये का आवंटन किया।
बागान मजदूर भाजपा की चुनावी रणनीति का मुख्य हिस्सा हैं। पिछले दिनों जब टूलकिट प्रकरण में भारत की चाय की छवि खराब करने की बात सामने आई थी तब भी प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्षी दलों पर अप्रत्यक्ष निशाना साधते हुए बागान मजदूरों से कहा था कि ऐसी ताकतें अपने हित के लिए असम की चाय को भी बदनाम कर रही हैं। बता दें की दार्जलिंग और असम में उगने वाली चाय की यूरोप में अच्छी खासी मांग है और यह भारत की प्रमुख प्रसिद्ध वस्तुओं में एक है । टूलकिट प्रकरण में कांग्रेस भले ही ग्रेटा थनबर्ग और दिशा रवि जैसे लोगों के साथ दिख रही थी, किन्तु असम चुनावों के दौरान उसकी भी कोशिश यही है की किसी प्रकार बागान मजदूरों के वोट हासिल किये जाएं।
दो नाव पर सवारी कांग्रेस की आदत बन गई है, सम्भवतः गाँधी परिवार वाले स्वयं को दुनिया का सबसे चालाक व्यक्ति समझते हैं और यह मानकर बैठे हैं की लोगों की स्मरणशक्ति बहुत कमजोर है और बागान मजदूर भी टूलकिट प्रकरण को भूल गए होंगे। अब असम और पश्चिम बंगाल के चुनावों के निर्णय बताएंगे की बागान मजदूरों को तृणमूल का चुनावी आवंटन और प्रियंका गाँधी का चुनावी भ्रमण प्रभावित करता है या उनकी स्थिति सुधरने के लिए भाजपा द्वारा किये जा रहे योजनाबद्ध प्रयास।