अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन जिस प्रकार सत्ता में आने के बाद रूस के खिलाफ एक के बाद एक कदम उठाते जा रहे हैं, उसके बाद कुछ विश्लेषक इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि अब रूस-चीन के बीच आपसी सहयोग को बढ़ावा मिलेगा और भविष्य में हमें रूस-चीन का गठबंधन भी देखने को मिल सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि Alaska वार्ता के दौरान अमेरिका-चीन की भिड़ंत के बाद रूसी विदेश मंत्री Sergey Lavrov चीन के दौरे पर गए और वहाँ उन्होंने पश्चिम देशों द्वारा दुनिया पर धाक जमाने के विचार की निंदा की। Lavrov ने यह भी ऐलान किया कि दोनों देशों के रिश्ते इतिहास में इतने अच्छे कभी नहीं रहे। हालांकि, सैन्य और तकनीकी सहयोग के मामले को देखें तो रूस-चीन के बीच किसी भी गठबंधन का विचार ना सिर्फ अव्यवहारिक है, बल्कि निरर्थक भी है! दो देशों के बीच किसी भी प्रकार का गठबंधन आपसी विश्वास पर आधारित होता है, और रूस-चीन के सम्बन्धों में अभी विश्वास की सबसे अधिक कमी है।
रूस-चीन आर्थिक और भू-राजनीतिक कारणों से चाहे एक दूसरे के कितने ही करीब होने का दिखावा करते हो, लेकिन इन दो देशों के बीच विवाद भी कुछ कम नहीं है। रूस और चीन, दोनों बड़ी शक्तियाँ एक दूसरे के पड़ोसी हैं जिसके कारण क्षेत्रीय प्रभाव को लेकर अक्सर दोनों के बीच तनाव की स्थिति देखने को मिलती है, फिर चाहे वह मध्य एशिया में प्रभुत्व की लड़ाई हो या फिर Arctic में वर्चस्व की! हालांकि, जहां बात सैन्य और तकनीकी सहयोग की आती है, वहाँ दोनों देशों के बीच की खाई और स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।
वर्ष 2018 में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने रूसी सांसदों को दिये एक बयान में बताया था कि अभी रूस अपने आधुनिक हथियार दूसरे देशों को बेचने की स्थिति में नहीं पहुंचा है। ऐसे में साथी देशों के साथ सैन्य सहयोग को लेकर रूस ने बीच का रास्ता चुना और वो था अन्य मित्र देशों के साथ “आपसी सहयोग और संयुक्त परियोजना के तहत आधुनिक हथियार विकसित करना!” अपनी इसी नीति के तहत रूस ने भारत के साथ मिलकर अति-आधुनिक ब्रह्मोस मिसाइल को सफलतापूर्वक विकसित किया और अब भारत इसे दुनियाभर में एक्सपोर्ट करने पर भी विचार कर रहा है। हालांकि, रूस और चीन के बीच इसी प्रकार की परियोजनाएं किसी खास नतीजे पर नहीं पहुँच पाई हैं। उदाहरण के लिए रूस और चीन ने मिलकर Wide Body Aircraft को विकसित करने के लिए एक परियोजना को शुरू किया था, वह औंधे मुंह गिरा है। इसी प्रकार दोनों देशों ने मिलकर Heavy lift Helicopter को विकसित करने के लिए भी जाइंट प्रोजेक्ट पर हस्ताक्षर किए थे, उसका भी कोई नतीजा नहीं निकल पाया!
अब सवाल उठता है कि अगर भारत और रूस के बीच कोई परियोजना सफल हो सकती है तो चीन और रूस के बीच इस प्रकार की परियोजनाएं असफल क्यों हो रही हैं? वह भी तब जब चीन वाकई बेहतर रूसी तकनीक को हथियाने के लिए दृढ़ दिखाई देता हो! इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि रूस चीन के साथ मिलकर सैन्य सहयोग को बढ़ावा देना चाहता ही ना हो! पूर्व में भी सैन्य तकनीक को लेकर रूस और चीन के बीच तनाव देखने को मिलता रहा है! कारण है चीन की हर विदेशी हथियार की Copy-Paste करने की पुरानी आदत, जो पुतिन को पसंद नहीं है।
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दिसंबर 2019 में रूसी सरकारी डिफेंस कंपनी Rostec ने चीन पर रूसी सैन्य तकनीक को चोरी कर नकली हथियार बनाने के आरोप लगाए थे। आरोपों के मुताबिक चीन ने रिर्वस एंजिनियरिंग के माध्यम से रूस के कई आधुनिक हथियारों की नकल कर रूसी डिफेंस उद्योग को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की थी। साथ ही पिछले वर्ष जून में रूस ने अपने एक मुख्य Arctic शोधकर्ता पर चीन के लिए जासूसी करने के आरोप लगाए थे और उसे house arrest कर दिया था। रूस ने अपने वैज्ञानिक पर आरोप लगाए थे कि उसने चीन को underwater navigation, underwater communication और सबमरीन से जुड़ी कुछ गोपनीय तकनीक को चीन को सौंपा था। रूसी सरकार ने इस खबर को सार्वजनिक कर चीन को भी एक कडा संदेश भेजा था कि वह चीन की इन हरकतों को बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं करेगा।
ये घटनायें दिखाती हैं कि रूस और चीन के बीच एक गठबंधन के लिए आवश्यक आपसी विश्वास की भारी कमी है। रूस अपनी सैन्य तकनीक शातिर चीन के साथ साझा करने में सहज नहीं है। शायद यही कारण था कि भारत के साथ विवाद के दौरान रूस ने चीन को S-400 मिसाइल्स की सप्लाई करने से साफ़ मना कर दिया था। रूस चीन के बीच इसी विश्वास की कमी के कारण इन दोनों देशों के बीच किसी रणनीतिक साझेदारी के विचार को आगे बढ़ाना बेवकूफी ही कहलाएगा!