1987 में हस्ताक्षरित एक बेतुके समझौते के कारण अब अमेरिका पर मंडरा रहा चीनी long-range मिसाइल का खतरा

अमेरिका

सुपरपावर अमेरिका अपनी दूरगामी नीतियों के कारण ही दुनिया की महाशक्ति बना। हमेशा से ही अमेरिकी प्रशासन की खूबी रही है कि वो दूर के खतरे को भांप लेते हैं। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि उनके सभी फैसले दूरदृष्टि से लाभकारी ही हों। ऐसा ही एक फैसला था 1987 में सोवियत रूस के साथ Intermediate-Range Nuclear Forces Treaty पर हस्ताक्षर करना था। इस समझौते के कारण अमेरिका और रूस ने तो अपनी-अपनी मध्यम दूरी की मिसाइलों के विकास को रोक दिया, लेकिन चीन इसी दौरान ऐसी मिसाइलों का विकास करता रहा।

अमेरिका अपने कोल्ड वॉर सिंड्रोम में ही फंसा रहा और अपनी नीतियों को रूस केंद्रित बनाता रहा। इसी क्रम में सबसे बड़ी रणनीतिक चूक कम्युनिस्ट चीन के प्रति तुष्टिकरण की नीति थी। अमेरिका ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया कि PLA अपनी मिसाइल फ्लीट बढ़ा रहा है। पेंटागन की रिपोर्ट के अनुसार आज चीन के पास मध्यम दूरी की करीब 1250 मिसाइलें हैं, जबकि अमेरिका के पास ऐसी एक भी मिसाइल नहीं है।

Intermediate-Range Nuclear Forces Treaty के कारण अमेरिका 500 से लेकर 5500 किलोमीटर दूर तक मार करने वाली मिसाइलों का निर्माण नहीं कर सकता। यही कारण है कि जमीन से जमीन पर वार करने वाली मिसाइलों के मामले में अमेरिका चीन से पिछड़ गया है। ट्रम्प सरकार ने अमेरिका की इस नीति में बदलाव किया और 2019 में समझौते की अवधि समाप्त होने के बाद उसे पुनः लागू नहीं होने दिया। किंतु 1987 से 2019 के दौरान एक लंबा अंतराल बीत गया और चीन अमेरिका से इस मामले में बहुत आगे निकल गया है।

Asia Nikkei की रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका की इस चूक के कारण चीन दक्षिण चीन सागर और पूर्वी एशिया में सैन्य संतुलन बिगाड़ रहा है और अमेरिका उसे रोक नहीं पा रहा। चीन के पास विभिन्न रेंज की न्यूक्लियर मिसाइल मौजूद है। अमेरिका इतने वर्षों में केवल नौसेना और वायुसेना के विस्तार पर ही कार्य करता रहा, किंतु इस क्षेत्र में मौजूद छोटे देशों को अमेरिका की नौसैनिक उपस्थिति भी चीन के भय से मुक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यही कारण है कि फिलीपींस, वियतनाम, इंडोनेशिया आदि देश अपनी सुरक्षा और विदेश नीति में नए समीकरण बनाने की कोशिश में हैं।

बदलते रणनीतिक समीकरणों को भांपते हुए अमेरिका ने भी जमीन से जमीन पर वार करने वाली मिसाइलों के विकास के लिए Precision-strike missiles ‘PrSM’ प्रोग्राम शुरू किया है। इसके लिए 27.4 बिलियन डॉलर का बजट भी दिया गया है। किंतु अमेरिका की दौड़ समय के साथ है, क्योंकि, अब हिन्द प्रशांत क्षेत्र में इस दशक में बहुत कुछ बदलने वाला है।

यह हम नहीं अमेरिका सैन्य अधिकारी भी कह रहे हैं। PrSM प्रोग्राम को पूरे होने के लिए 6 वर्षों की अवधि तय की गई है। किंतु वाशिंगटन स्थित थिंकटैंक American Enterprise Institute द्वारा आयोजित कार्यक्रम में US इंडो पैसिफिक कमांड के कमांडर एडमिरल फिलिप डेविडसन ने कहा ” अगले 6 वर्षों को लेकर हम चिंतित हैं, क्योंकि इस दौरान ऐसा हो सकता है कि चीन क्षेत्र में स्टेटस क्यू बदलने की कोशिश करे, हो सकता है यह ताइवान के साथ हो।

उन्होंने कहा कि एक सामान्य समझ यह है कि अब से 2026 के बीच की अवधि में, इस दशक के दौरान, चीन अपनी क्षमता के अनुसार बहुत कुछ हासिल करने की कोशिश करेगा। और चीन अगर ऐसा करने की क्षमता पैदा करता है तो वह बलपूर्वक स्टेटस क्यू बदलने की कोशिश करेगा। उन्होंने आगे कहा कि मैं कह सकता अगर स्टेटस क्यू में बदलाव हुआ तो यह स्थाई होगा

अमेरिका की समस्या यह है कि एक लंबे समय तक वह रूस को अनावश्यक रूप से अपनी विदेश और सुरक्षा नीति के केंद्र में रखे हुए था, जबकि उसके लिए वास्तविक खतरा चीन से था। नतीजा यह हुआ कि आज चीन केवल अमेरिका की सुपरपावर की गद्दी के लिए खतरा नहीं है, बल्कि वह दुनियाभर के लोकतांत्रिक समाजों के लिए बड़ा खतरा बन गया है। ट्रम्प ने इस नीति में बदलाव की कोशिश की, अमेरिका की रणनीतिक तैयारियों को चीन केंद्रित बनाया किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

आज इंडो पैसिफिक क्षेत्र में अमेरिका के मुख्य सहयोगी भी अपनी मिसाइल तकनीक विकसित करने को मजबूर हैं, क्योंकि जापान, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका सभी मिसाइल वारफेयर में चीन के मुकाबले बहुत पीछे हैं। फिलीपींस, जिसकी सुरक्षा की गारंटी अमेरिका ने ले रखी है, वह भी भारत से ब्रम्होस मिसाइल खरीद रहा है। अमेरिका का PrSM प्रोग्राम समय के साथ दौड़ है, देखना है कि अमेरिका इस दौड़ को जीत पाता है या नहीं। दक्षिणी चीन सागर का भविष्य, बहुत हद तक इस बात से निर्धारित होने वाला है।

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