जिन देशों के साथ एर्दोगन कभी युद्ध लड़ना चाहते थे, आज उन्हीं के सामने रिश्ते सुधारने की भीख मांग रहे हैं

एर्दोगन के छवि-परिवर्तन का पूरा सच यहाँ है!

एर्दोगन

पिछले कुछ समय तक युद्ध के गीत गाने वाले तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोगन आजकल शांति के गीत गाते सुने जा सकते हैं। वे अपने “दुश्मन” देशों के साथ अचानक से रिश्ते सुधारने की बात कर रहे हैं। हालिया खबरों के मुताबिक तुर्की इजिप्त के साथ मिलकर सम्बन्धों को पुनर्जीवित करने के साथ-साथ पूर्वी भू-मध्य सागर में ऊर्जा संबन्धित मामलों पर सहयोग करने के अवसर खोज रहा है। इसी के साथ-साथ तुर्की और इजरायल मिलकर अरब देशों के साथ भी ऊर्जा सहयोग जैसे मामलों पर चर्चा कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि अब एर्दोगन का अगला उद्देश्य इजरायल के साथ-साथ अरब देशों के साथ रिश्ते बेहतर करना है। लेकिन यहाँ बड़ा सवाल यह है कि तुर्की के इस बदले रुख के पीछे का असल कारण आखिर है क्या?

दरअसल, पिछले दो सालों से तुर्की की अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है। तुर्की की अर्थव्यवस्था एर्दोगन की आर्थिक और भू-राजनीतिक नीतियों के कारण पहले ही पटरी से उतर चुकी थी, उधर कोरोना के बाद स्थिति और बिगड़ गयी। एर्दोगन ने हाल ही में तुर्की के केंद्रीय बैंक के गवर्नर को भी उनके पद से हटाया था, जिसके बाद तुर्की की करेंसी लीरा की कीमत में 15 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली है। गवर्नर Naci Agbal देश में बढ़ती महंगाई को रोकने के लिए ब्याज़ दर को बढ़ाए चले जा रहे थे। हालांकि, उनके पद से हटाये जाने के बाद तुरंत तुर्की के स्टॉक एक्सचेंज पर उसका प्रभाव देखने को मिला।

तुर्की द्वारा इजरायल और इजिप्त जैसे देशों के साथ नजदीकी बढ़ाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि हाल ही में इजिप्त और इजरायल ऊर्जा सहयोग बढ़ाने की मंशा से एक दूसरे के काफी करीब आए हैं। हाल ही में इजिप्त के ऊर्जा मंत्री Tarek el-Molla ने इजरायल का दौरा किया था और वे वहाँ इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू से मिले थे। दोनों ने मिलकर भू-मध्य सागर क्षेत्र में प्राकृतिक गैस भंडार की खोज के आधार पर क्षेत्र में सहयोग को बढ़ाने और ऊर्जा सहयोग पर चर्चा की थी। इन दोनों के साथ आने से ना सिर्फ तुर्की के दुश्मनों में सहयोग बढ़ता और उनका आर्थिक विकास होता, बल्कि क्षेत्र में तुर्की अलग-थलग भी पड़ जाता। ऐसे में तुर्की ने नाज़ुक स्थिति को भाँपते हुए इन दोनों के साथ ही रिश्ते बेहतर करने की नीति अपनाई है। इसके साथ ही तुर्की की बदहाल अर्थव्यवस्था के कारण भी एर्दोगन के पास ज़्यादा विकल्प नहीं बचे हुए हैं।

हालांकि, तुर्की को अरब देशों के साथ रिश्ते सुधारने के लिए कई मोर्चों पर कदम उठाने होंगे, जो एर्दोगन के खलीफा बनने के सपने को मिट्टी में मिला सकता है। तुर्की ना सिर्फ लीबिया और सीरिया में अपना प्रभाव बढ़ाने की जुगत में जुटा है, बल्कि इस्लामिक जगत पर अरब देशों के प्रभाव को खत्म कर खुद का नेतृत्व स्थापित करने की भी कोशिश कर रहा है। ज़ाहिर है कि अगर तुर्की को इज़रायल-अरब देशों के साथ अपने रिश्ते बेहतर करने हैं तो उसे अपनी सीमाओं को बढ़ाने की महात्व्कांक्षाओं के साथ-साथ इस्लामिक जगत पर अपने प्रभाव को बढ़ाने के मंसूबों को भी भूल जाना होगा।

साथ ही एर्दोगन को अपनी गिरती अर्थव्यवस्था को भी संभालना है। तुर्की को अपने पड़ोसी देशों में प्रभाव बढ़ाने के सपनों को छोड़कर अपने आर्थिक विकास की ओर ध्यान देने की ज़रूरत है, वरना वो दिन दूर नहीं जब तुर्की ईरान के रास्ते पर चलकर अपने आप को आर्थिक विनाश की आग में झोंक देगा!

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