भारत के लिबरल ब्रिगेड के प्रिय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा से नफरत के लिए प्रसिद्ध हैं। हिंदुस्तान टाइम्स के साथ हाल ही में एक साक्षात्कार में, उन्होंने टीएमसी को समर्थन देते हुए एक बार फिर से देश और पश्चिम बंगाल में हर गलत चीज के लिए बीजेपी को दोषी ठहराया है।
उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे एक ऐसी पार्टी के समर्थक न बनें जिसे वे “national degradation के रूप में देखते हैं। उन्होंने कहा कि, “यदि बंगाल केंद्र में बैठे शासकों द्वारा शासित होगा है, स्थानीय नेता द्वारा नहीं, तो इससे उन्हें मजबूती मिलेगी जिनके अल्पसंख्यक अधिकारों की अवधारणा अत्यंत सीमित है तथा जिनका आर्थिक नीति और सामाजिक न्याय पर रिकॉर्ड बेहद दोषपूर्ण है।
सेन ने स्पष्ट तौर पर जोर देते हुए कहा कि, “बंगाल को उस national degeneration का सहयोगी नहीं बनना चाहिए।“ यानी वे चाहते हैं कि बंगाल के लोग बीजेपी को न चुके जिससे यह पार्टी और मजबूत हो।
इसके अलावा, सेन ने भ्रामक आंकड़ा भी पेश जो लेफ्ट लिबरल प्रकृति के अनुरूप ही है और उन चीजों का तर्क दिया जो जमीन स्तर पर मेहनत करने वाले सुनना भी नहीं चाहेंगे।
उनके अनुसार, “गरीब होने के बावजूद बंगाली किसानों के पास गुजराती किसानों की तुलना में बेहतर स्वास्थ्य स्थिति है। कुछ वितरण मुद्दे हैं, लेकिन distribution ने काफी अच्छा काम किया है।” अब तक जिन कारणों से पश्चिम बंगाल के किसान गरीब रहे अमर्त्य सेन उन नीतियों को ही इस राज्य के लिए बेहतर बता रहे हैं।
सेन ने इस इंटरव्यू के दौरान कहा कि, लोगों को ‘एक’ होना चाहिए जो, केवल तभी संभव है जब भाजपा को सत्ता से बाहर रखा जाए। उन्होंने कहा, “यह आश्चर्य की बात नहीं है कि चुनावी प्रचार में पहचान का मुद्दा उठता है। हालांकि, ध्यान अक्सर भारतीय पहचान या बंगाली पहचान की तुलना में बेहद संकीर्ण होता है। अब यह बंगाली उप-राष्ट्रवाद से आगे बढ़ गया है।“
उन्होंने TMC द्वारा किये जा रहे राजनीतिक हत्याओं पर आंख बंद कर, बीजेपी को दोष देते हुए कहा कि, “सांप्रदायिक विभाजन की खतरनाक लपटों की सनक 1946 से बंगाल में उतनी दृढ़ता से नहीं हुई, जितनी अब हो रही है।”
जब उनसे यह प्रश्न पूछा गया कि, “प्रशांत किशोर ने यह स्वीकार किया है कि टीएमसी और कांग्रेस ने केवल मुस्लिमों को खुश करने की कोशिश की और अब हिंदू ऐसी पार्टी को वोट देना चाहते हैं जो उनके हितों को देख रही हो। क्या आप इससे सहमत हैं? इस पर सेन ने कहा कि “(यह) हिंदुत्ववादी विचारों से प्रेरित पार्टी के प्रचार का एक हिस्सा है।”
बता दें कि 1980 के दशक तक भारत में नीति निर्माण काफी हद तक धन के सृजन के बजाय redistribution पर केंद्रित था, और उन नीतियों के पीछे बौद्धिक समर्थन अमर्त्य सेन और उनके गुरु जैसे के एन राज द्वारा ही प्रदान किया गया था। उदारीकरण से पहले भारत में गरीबी के मुख्या कारण यही नीतियाँ थी जिसे इन Intellectuals ने बनायीं थी।
1991 में आर्थिक उदारीकरण, redistribution से दूर और विकास की दिशा में एक बदलाव था। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियां देश में विकासात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करने में अधिक सक्षम रही हैं। उदारीकरण के बाद के गरीबी तेजी से कम हुई और साथ ही सामाजिक सुरक्षा भी तेजी से बढ़ी है। इसलिए वामपंथी अर्थशास्त्री बहुत अप्रासंगिक हो चुके हैं।
पिछली यूपीए सरकार ने फिर से इन अर्थशास्त्रियों को आजमाया और देश की अर्थव्यवस्था को एक बार फिर गड़बड़ कर दिया। हालांकि, अमर्त्य सेन जैसे लोग, जो डेटा पर बहुत कम भरोसा करने वाले और हवा में अधिक बातें करने वाले अब यह स्वीकार करते हैं कि उनके विचार विफल हो गए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि उन्हें पुनर्विचार की आवश्यकता है।
इसके बावजूद वे ‘फासीवादी’, ‘सांप्रदायिक’,जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, बिना उसके अर्थ या संदर्भ समझे। साथ ही वे यह भी आशा करते हैं लोग यानी जनता को मोदी के बजाय किसी और को चुनना चाहिए। इसी सोच और जनता के रुख को न समझ पाने के कारण ही आज वे पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं और उनके विचारों को कोई भाव नहीं देता।
यह हास्यास्पद ही है कि अब भी अमर्त्य सेन के लगातार इस तथ्य को छिपाने की कोशिश करते रहे कि divisive, communal, Bengali identity, sub-nationalism जैसे शब्दों के इस्तेमाल के बावजूद जनता अब बीजेपी के साथ ही दिखाई दे रही है। उनके जैसे intellectual से ऐसी ही उम्मीद भी की जा रही थी।