कोरोना से बेहाल महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों की विफलता ने स्वास्थ्य के विषय पर गंभीर चर्चा को बल दिया है

कोरोना

भारतीय संविधान में राज्य सूची, संघ सूची और समवर्ती सूची नामक तीन खंडों में, सरकार की विभिन्न जिम्मेदारियों को बांटा गया है। राज्य सूची के विषयों के लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार बनाया गया है। अक्सर राज्य सरकारें केंद्र के सुधारों को यह कहते हुए लागू नहीं करती कि केंद्र को अधिकार नहीं कि वह राज्य सूची के विषयों पर दिशानिर्देश दे। किंतु स्वास्थ एक ऐसा विषय है, जो राज्य सूची का विषय है, किंतु जिसे लेकर राज्य सरकारें पूरी तरह से केंद्र पर निर्भर हैं, एवं अपनी जिम्मेदारी को उठाना भी नहीं चाहती।

कोरोना के फैलाव ने इस बात को और भी स्पष्ट कर दिया है कि राज्य सरकारें हज हाउस बनवाने और फ्री मिक्सी, टैबलेट बांटने में इतनी मशगूल रहीं कि उन्होंने चिकित्सकीय सुविधाओं के विकास को कभी तवज्ज़ो ही नहीं दी। यही कारण है कि आज लगभग सभी राज्य सरकारें, ऑक्सीजन सिलेंडर से लेकर वेंटिलेटर तक, हर बात के लिए केंद्र से मदद मांग रही हैं और उसे जिम्मेदार बताया रही हैं।

दिल्ली, विधानसभा वाला केंद्र शासित क्षेत्र है। मुख्यमंत्री केजरीवाल पूर्ण राज्य की मांग को हमेशा उठाते रहे हैं, लेकिन आज जब कोरोना का फैलाव हुआ, तो दिल्ली सरकार के पास इस महामारी से निपटने के लिए न तो कोई योजना है न संसाधन। जब दिल्ली के हालात बहुत बिगड़ गए, तो अंततः केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को हस्तक्षेप करना पड़ा। DRDO और रेलवे के सहयोग से अस्थाई हॉस्पिटल बनाए गए।

महाराष्ट्र, जो भारत का सबसे धनी प्रदेश है, एवं मुम्बई का रेवेन्यू जिसके हाथ में है, वह ऑक्सीजन और वेंटिलेटर के लिए हाथ फैलाये खड़ा है। यह शब्द अपमान करने के लिए नहीं चुने गए, बल्कि कड़वी सच्चाई बताने के लिए इस्तेमाल हुए हैं। मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है, भारत की जीडीपी में 6 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखती है। देश के कुल हिस्से में 30 प्रतिशत इनकम टैक्स और 20 प्रतिशत एक्साइज मुंबई से आता है, मुंबई से 60 प्रतिशत कस्टम ड्यूटी और 4 लाख करोड़ का कॉर्पोरेट टैक्स मिलता है। केंद्र का हिस्सा हटाने के बाद भी सोचा जाए, तो भी यह असंभव है कि मुम्बई जैसी सोने की खदान पाकर भी कोई राज्य सरकार संसाधनों की कमी से जूझ रही है।

एक ओर महाराष्ट्र है जो केंद्र से 7000 वेंटिलेटर की मदद मांग रहा है, वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश है, जो अपने से इस समस्या से जूझ रहा है और केंद्र पर बोझ नहीं बन रहा। गौरतलब है कि यह वही उत्तर प्रदेश है, जहाँ गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से नवजात शिशुओं की मौत हुई थी और नवगठित योगी सरकार को खराब हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए कोसा गया था। आज 3 साल में परिदृश्य बिल्कुल बदल गया है।

पिछले वर्ष जब कोरोना की प्रथम लहर चल रही थी, केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने संसद को बताया था की ओडिशा को केंद्र की ओर से 567 वेंटिलेटर दिए गए, जिसमें से राज्य सरकार 147 वेंटिलेटर ही लगवा पाई, शेष 420 पड़े-पड़े धूल खाते रहे, जबकि कोरोना से मौत का आंकड़ा दिन प्रतिदिन बढ़ रहा था। यही हाल कोरोना की दूसरी लहर में भी है, सबसे बुरा है कि ओडिशा ऐसा एकमात्र राज्य नहीं है। ऐसी खबरें देश के कई राज्यों से आ रही हैं। राजस्थान तो इस मामले में एक कदम आगे निकल गया, जहाँ भेजी गई वैक्सीन ही चोरी हो गई।

ऐसा नहीं है कि यह हालात कोरोना के कारण पैदा हुए हैं। कर्नाटक में मंकी फीवर का उदाहरण लें या बिहार के इंसेफेलाइटिस का उदाहरण लें, राज्य सरकारें हर बार अपनी मुसीबतों का स्वयं समाधान करने में अक्षम ही साबित हुई हैं। राज्य सरकारें ढंग के हॉस्पिटल तो क्या ही बनवाएंगे, वो गाँव गाँव तक हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर पहुंचाने में भी सक्षम नहीं हैं। इसका कारण फण्ड की कमी नहीं, बल्कि स्तरहीन और स्वार्थी राजनीति है। क्षेत्रीय दल लोकलुभावन योजनाओं, फ्री में लैपटॉप, मोबाइल बांटने को ही अपना कर्म मानते हैं। उनके लिए उनका सीमित वोटबैंक ही महत्वपूर्ण है। उनकी नाकामी का बोझ केंद्र उठाती है और अपनी सीमा के बाहर जाकर भी उन्हें मदद देती है। आज वेंटिलेटर से लेकर ऑक्सीजन सिलेंडर तक, जो भी संसाधन केंद्र दे रही है, वह उसके कार्यक्षेत्र में आते ही नहीं। इतना करने के बाद भी ये राज्य सरकारें अपनी नाकामी छुपाने के लिए केंद्र को ही दोषी बनाती हैं।

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