सन 1991 में कांग्रेस पार्टी की सरकार ने Places of Worship Act का कानून सदन में पारित किया था। इस एक्ट के तहत आजादी यानी 1947 से पहले मौजूद धार्मिक उपासना स्थलों को बदलने (Conversion of Religious Places) पर रोक लगा दी गई थी। यह अधिनियम बाबरी मस्ज़िद (वर्ष 1992) के विध्वंस से एक वर्ष पहले सितंबर 1991 में पारित किया गया था।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में इस अधिनियम के खिलाफ याचिका डाली गई थी। याचिका डालने वाले बीजेपी नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय है। हैरानी की बात यह है कि ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ज्यादातर याचिका को रद्द कर देती है, लेकिन इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। कोर्ट के इस बात से यह अर्थ निकलता है कि कोर्ट इस मामले में सुनवाई के लिए तैयार है और वो केंद्र सरकार को भी इस मामले में पक्षकार बनाना चाहती है।
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गौरतलब है कि अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका में दमखम है। याचिका में लिखा है कि “places of worship act, मनमाना, तर्कहीन और पूर्वव्यापी कानून है। यह अधिनियम कहता है कि 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्थिति में था और जिस समुदाय का था, भविष्य में भी उसी का रहेगा और कट्टरपंथी आक्रमणकारियों द्वारा किए गए अतिक्रमण के खिलाफ विवादों के संबंध में कोई मुकदमा या कार्यवाही अदालत में नहीं होगी।”
याचिका में आगे लिखा गया है कि “अनुच्छेद 25 के धारा 2, 3, 4 न केवल प्रार्थना, अभ्यास और प्रचार धर्म का अधिकार देता है, बल्कि अनुच्छेद 26 पूजा-तीर्थ यात्रा के स्थान को बनाए रखने और प्रबंधन करने का अधिकार देता है। संस्कृति के संरक्षण का अधिकार अनुच्छेद 29 में दिया गया है। यह ही नहीं places of worship act ऐतिहासिक स्थानों की रक्षा के लिए राज्य का कर्तव्य (अनुच्छेद 49) और धार्मिक सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना (अनुच्छेद 51 ए) के विपरीत है।”
हमारे देश की लिबरल मीडिया ने इतनी जरूरी याचिका और सुप्रीम कोर्ट के रुख को सनसनी खबरों के बीच दबा दिया। मीडिया ने याचिकाकर्ता की बातों का कहीं भी उल्लेख नहीं किया। अगर करता तो जनता को अपने राइट टू रिलीजन एक्ट के बारे में जानकारी प्राप्त होती और साथ ही में यह भी ज्ञात होता ही Places of worship act कैसे उनके मौलिक अधिकारों का हनन करता है।
हालांकि, Places of worship act 1991 के खिलाफ यह इकलौती याचिका नहीं है, इससे पहले साल 2020 में लखनऊ के विश्व भंडारा पुजारी पुरोहित महासंघ भी इस अधिनियम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गया था। विश्व भंडारा पुजारी पुरोहित महासंघ की याचिका से डर कर जमीयत उलेमा ए हिंद भी कोर्ट पहुंच गया था।
आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट की याचिका में अश्वनी कुमार की दलील काफी ज्यादा मजबूत है, क्योंकि उन्होंने मौलिक अधिकार का जिक्र किया है। राइट टू रिलीजन एक मौलिक अधिकार है। बता दें कि अधिकतम मामलों में जहां मौलिक अधिकारों और सरकार द्वारा बनाए गए कानून के बीच लड़ाई होती है तो हमेशा ही वहां मौलिक अधिकारों की जीत होती है।
एक तरफ Places of worship act को हटाने के लिए याचिका डाली गई वहीं, दूसरी तरफ बनारस कोर्ट ने काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा खोल दिया है। साथ ही में मथुरा कृष्ण जन्मभूमि वाला भी मामला कोर्ट में जा चुका है। यह दोनों मामलों में अभी तक सबसे बड़ी अड़चन Places of worship act है।
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अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका और उसके ऊपर सुप्रीम कोर्ट का रुख बताती है कि कोर्ट जल्द ही इस मामले को प्राथमिकता देगा। उम्मीद है कि कोर्ट जल्द से जल्द इस अधिनियम को रद्द करेगी क्योंकि यह अधिनियम हिंदुओं, जैन, सिख, और बौद्ध धर्म की मौलिक अधिकारों का हनन करता है।