अपने अस्तित्व के 70 साल बाद भी भारत के शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट में आज तक किसी एक महिला की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर नहीं हुई। अक्सर महिला अधिकारों की रक्षा पर विशेष टिप्पणी करने वाले सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायधीश तो दूर न्यायधीश के पद पर भी केवल आठ महिलाओं की ही नियुक्ति की गयी है।
आखिर क्या कारण है कि अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी पर जोर देने वाला सुप्रीम कोर्ट की अपनी जजों की मंडली में महिलाओं की ही भागीदारी कम है? क्या सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम व्यवस्था महिलाओं को न्यायिक क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले कमजोर समझती है जिसके कारण उनकी नियुक्ति नहीं होती? अगर नहीं तो क्या ऐसे में कोलेजियम व्यवस्था की प्रासंगिकता होनी चाहिए जो आधी आबादी को ही इस तरह से अंडरएस्टीमेट करता है? या फिर भाई भतीजावाद से लिपटे न्यायिक तंत्र के कारण उन्हें उनका हक नहीं मिलता?
आईए देखते हैं:
सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के 40 वर्ष तक तो किसी महिला को सुप्रीम कोर्ट की न्यायधीश के लिए योग्य ही नहीं समझा गया। जस्टिस फातिमा बीवी पहली महिला SC जज थीं और उन्हें 1989 में नियुक्त किया गया था। उसके बाद भी आज तक केवल सात महिला न्यायाधीशों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया गया है।
वहीँ सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम व्यवस्था में केवल दो महिला न्यायाधीशों – न्यायमर्ति रूमा पाल और न्यायमूर्ति आर बनुमथी – को ही स्थान मिला जो उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार निकाय है। आंकड़ों के हिसाब से उच्च न्यायालयों में भी महिला प्रतिनिधित्व न्यूनतम है।
भारत के 26 उच्च न्यायालयों में कुल 1,079 न्यायाधीशों में से केवल 82 महिला न्यायाधीश हैं। लॉ स्कूल में नामांकित महिलाओं की संख्या पुरुषों के बराबर है, लेकिन महिला वकीलों को ‘वरिष्ठ अधिवक्ता’ के रूप में नामित करने में भी आनाकानी की जाती है। शीर्ष अदालत में एक तरफ 403 पुरुष वरिष्ठ अधिवक्ता हैं तो वहीँ मात्र केवल 17 महिला ‘वरिष्ठ अधिवक्ता’ हैं।
भारत को आज तक एक महिला मुख्या न्यायधीश का न मिल पाने के पीछे निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति और उसमे कोलेजियम व्यवस्था की भागीदारी समझनी होगी।
केवल शीर्ष तीन एससी न्यायाधीश शीर्ष अदालत के कॉलेजियम का हिस्सा होते हैं, जबकि उच्च न्यायालय में शीर्ष तीन वहाँ कॉलेजियम बनाते हैं। नियुक्ति की यह प्रणाली 1993 में लागू हुई। मौजूदा प्रथा के तहत, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की सिफारिश पर की जाती है, जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश करते हैं और इसमें चार सबसे सीनियर जज शामिल होते हैं।
देश में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और वकीलों की कोई कमी नहीं है। कई शानदार महिला वकील और न्यायाधीश हैं, जिन्हें अगर जल्द शीर्ष अदालत में नियुक्त किया जाता है, तो वे वरिष्ठता नियम के अनुसार कुछ वर्षों के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश बन सकती हैं। परन्तु यही कोलेजियम व्यवस्था अपना काम कर देती है और या तो महिला जजों को अन्य हाई कोर्ट में ट्रान्सफर कर उन्हें उन्हें seniority circle से दूर कर दिया जाता है। अगर किसी महिला जज की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट में हो भी जाती है तो वे वरिष्ठता नियम में पीछे रह जाती हैं और टॉप 4 न्यायधीशों में शामिल होने से पहले ही रिटायर हो जाती हैं।
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उदहारण के लिए सितंबर 2019 में, मद्रास उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश विजया कमलेश ताहिलरमानी ने इसी तरह के मामले के कारण इस्तीफा दे दिया था। कोलेजियम ने उन्हें देश के सबसे वरिष्ठ उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने के बावजूद मेघालय जो कि देश के सबसे छोटे उच्च न्यायालयों में से एक है, वहां स्थानांतरित कर दिया था। तमिलनाडु भर के बार संघों के सदस्यों ने इस कदम के खिलाफ विरोध किया और “एक दिन के अदालती बहिष्कार” भी देखने को मिला था।
यह आगे भी देखा जा सकता है। आने वाले कुछ वर्षों में बंबई उच्च न्यायालय से कई नियुक्तियां सुप्रीम कोर्ट में होंगी। उनमें से न्यायमूर्ति बी वी नागरथना भी शामिल में। वह न्यायाधीशों की अखिल भारतीय वरिष्ठता सूची में 46 वें स्थान पर हैं और बंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता से वरिष्ठ हैं, जो शीर्ष अदालत में जाने के बाद 2030 में सेवानिवृत्त होंगे। अब यह देखना है कि बी वी नागरथना की नियुक्ति होती है या नहीं और अगर होती है तो कब।
यानी देखा जाये तो जब तक कोलेजियम रहेगा तब तक तो किसी महिला का मुख्य न्यायधीश पद पर जाना नामुमकिन ही लग रहा है। इसलिए अगर भारत में मुख्य न्यायधीश के पद पर किसी महिला हो देखना है तो इस कोलेजियम व्यवस्था से छुटकारा पाना होगा। यह न्यायपालिका में महिला सशक्तिकरण के कारण की ओर एक बहुत ही आवश्यक कदम साबित होगा।
ध्यान देने वाली बात यह है यदि वरिष्ठ महिला न्यायाधीश उपलब्ध नहीं हैं, तो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता को भी सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप नियुक्त किया जा सकता है। ऐसा कोई लिखित नियम नहीं हैं जो कॉलेजियम को यह करने से रोकते हैं। अंततः न्यायाधीशों का चुनाव कॉलेजियम के भीतर आम सहमति पर निर्भर करती है। यदि सभी कोलेजियम सदस्य यह निर्णय लेते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिए एक महिला न्यायाधीश के नाम की सिफारिश करने का समय है, तो वे ऐसा कर सकते हैं। जस्टिस इंदु मल्होत्रा बार से सीधे तौर पर elevate होने वाली पहली महिला हैं। परन्तु उनकी नियुक्ति भी काफी देर से हुई जिससे वह टॉप 4 में नहीं पहुँच पाई।
बता दें कि 2016 से पहले कोलेजियम में होने वाले विचार-विमर्श को कभी रिकॉर्ड नहीं किया जाता था। न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कॉलेजियम के कुछ न्यायाधीशों के बीच trade-offs का भी आरोप लगाया, जो अपने किसी व्यक्ति को elevate करने लिए करते थे ।
NJAC पर अपने स्पष्ट असंतोषजनक फैसले में, न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कोलेजियम व्यवस्था को उसके पिछले 26 वर्षों के आधार पर उसे “लोगों और इतिहास दोनों के लिए पूरी तरह से अपारदर्शी” बताया था। उनका कहना था कि कॉलेजियम सिस्टम में बिल्कुल जवाबदेही नहीं थी।”
फरवरी 2020 में, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और 2018-2019 के कॉलेजियम के सदस्य, अर्जन कुमार सीकरी ने कहा है कि उम्मीदवारों के बारे में “वैज्ञानिक अध्ययन” से अधिक बार, हम [कॉलेजियम] न्यायाधीशों को [उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में] नियुक्त करने में “अपनी धारणा” से फैसला लेते हैं।“
इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज न्यायिक प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी कम क्यों है और आज तक देश को एक महिला मुख्यन्यायधीश क्यों नहीं मिली। अगर वास्तव में महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी है तो सबसे पहले कोलेजियम सिस्टम के स्थान पर एक पारदर्शी सिस्टम की आवश्यकता है जो जजों में उम्मीदवारों के प्रति की धारणा पर नहीं बल्कि उनके टैलेंट के अनुसार प्रोमोशन दे।
इसका संविधान में वर्णन नहीं किया गया है। इस व्यवस्था में अस्पष्टता, पारदर्शिता की कमी के साथ ही भाई-भतीजावाद की संभावना भी व्यक्त की जाती रही है। इस सिस्टम के बदलने से न सिर्फ पारदर्शिता आएगी बल्कि एक महिला का CJI पद पर पहुंचना आसान हो जायेगा।