बहुत हुआ! नक्सलियों से निपटने के लिए अब सेना को दो FREE HAND!

गोली के बदले इन्हें गोला दो!  

PC: Economic Times

देश के बाहरी दुश्मनों से निपटना सबसे आसान है, लेकिन भीतर छुपकर हमला बोलने वाले दुश्मनों से निपटना बेहद मुश्किल। ऐसा इसलिए क्योंकि सुरक्षाबलों के लिए ये पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है कि कौन देशहित की सोच रखता है और कौन विरोधी। कुछ ऐसा ही नक्सलवाद के साथ भी है, जो देश में काफी हद तक खत्म हो चुका है। इसके वाबजूद भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां नक्सली अपना आंतक फैलाकर सुरक्षाबलों के लिए मुसीबत बने हुए हैं। इसका हालिया उदाहरण छत्तीसगढ़ के बीजापुर और सुकमा जिले की सीमा पर हुआ नक्सली हमला है, जिसमें सीआरपीएफ के 22 जवानों की शहादत हुई  है।

नक्सल प्रभावित इलाकों से इस तरह की खबरें आए दिन सामने आती रहती हैं। ऐसे में अब ये सवाल उठने लगे हैं कि क्यों न इन देशद्रोही नक्सलियों से निपटने के लिए सेना के अंतर्गत काम करने वाले ही विशेष सुरक्षा बल को ही मोर्चे पर उतार दिया जाए, जिससे देश में नक्सलवाद के खिलाफ आखिरी जंग शुरू हो सके।

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़, झारखंड समेत देश के कुछ इलाकों में आज भी नक्सलवाद ने अपने पैर पसार रखे हैं, जो समय-समय पर सुरक्षाबलों को नुकसान पहुंचाते रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बीजापुर और सुकुमा का इलाका भी नक्सल प्रभावित माना जाता है। इसी इलाके में सीआरपीएफ के एक ऑपरेशन के दौरान नक्सलियों ने उन पर हमला कर दिया।

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इस हमले में सीआरपीएफ के 22 जवाव शहीद हुए हैं और एक जवान अभी-भी गायब है। इस मुद्दे को लेकर देश में गुस्से का माहौल है। प्रत्येक व्यक्ति अब सरकार द्वारा इस हमले के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की मांग कर रहा है। ऐसे में आ रही खबरें लोगों को और अधिक आक्रोशित कर रही हैं, क्योंकि ये बता रही हैं कि इन नक्सलियों ने आधुनिक हथियारों और गोले-बारूदों से सुरक्षाबलों पर हमले की योजना बनाई थी।

ये सारी खबरें साबित करती हैं कि अब ये नक्सली पहले जैसे नहीं रहे हैं। इनके हमला करने की तकनीक से लेकर प्लानिंग सभी में बदलाव आया है। साथ ही ये सीआरपीएफ से इतने सालों से मुठभेड़ करते-करते उनके कार्य करने के तरीके को भी समझ चुके हैं। हम आए दिन खबरें सुनते रहते हैं कि नक्सली हमले में किसी दिन एक, किसी दिन दो जवान शहीद हो गए, फिर अचानक यही नक्सली एक बड़े हमले को अंजाम दे देते हैं।

पिछले महीने ही बस्तर के इलाकों में इन नक्सलियों ने अनेक गाड़ियों को आग लगाने के साथ ही एक बस को विस्फोटक से उड़ा दिया था, जिसमें 5 जवान शहीद हुए थे। सीआरपीएफ, आईटीबीपी से लेकर पुलिस तक पर ये नक्सली पिछले एक महीने में ही कई बड़े हमले कर चुके हैं। यकीनन नक्सलियों द्वारा किए जा रहे हमले खतरनाक हैं, लेकिन फिर भी सेना को लगाने की बात करना अतिश्योक्ति होगी। ऐसे में सरकार को एक नया विकल्प अपनाना होगा।

बात अगर सीआरपीएफ की करें तो सीआरपीएफ अर्धसैनिक बलों की सूची में आता है, लेकिन इस पर राजनीतिक प्रभाव काफी अधिक होता है। दूसरी ओर एक सत्य यह भी है कि सीआरपीएफ में मुख्य नेतृत्वकर्ता आईपीएस लेवल के अधिकारी होते हैं। ये आईपीएस अधिकारी जमीनी स्तर पर ऑपरेशंस को लेकर ज्यादा सक्षम नहीं माने जाते हैं, जिसके चलते नक्सली इलाकों में सीआरपीएफ के जवानों को ऑपरेशंस में सबसे अधिक परेशानियां होती हैं।

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इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि नक्सलवाद को खत्म करने में सीआरपीएफ की विशेष भूमिका है, लेकिन एक यथार्थ सत्य ये भी है कि सीआरपीएफ के हाथ तोबड़तोड़ हमलों को लेकर बंधे रहते हैं। ऐसे में एक नया विकल्प जरूरी है।

नक्सल प्रभावित इलाकों के लिए 2010 में एक बड़े हमले के बाद तय किया गया था कि रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली राष्ट्रीय राइफल्स को इन इलाकों में भेजा जाए, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी के कारण उस समय ये सख्त कदम नहीं उठाया जा सका। राष्ट्रीय राइफल्स ने जम्मू-कश्मीर के इलाकों में आतंकवाद से निपटने में बेहतरीन भूमिका निभाई है। इसमें खास बात यह भी है कि ये संगठन सीधे रक्षा मंत्रालय से संलग्न है।

कुछ इसी तरह सेना के अंतर्गत आने वाले असम राइफल्स के जवानों ने पूर्वोत्तर भारत में अलगाववादियों के खात्मे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। असम राइफल्स भी सेना के नेतृत्व वाला अर्धसैनिक बल है, जो गृह मंत्रालय द्वारा ही मॉनिटर होता है। इसके कारण राजनीतिक दबावों का इस पर खास असर नहीं पड़ता है। ये सभी सुरक्षाबल अपने लक्ष्य को पूरा करने में युद्धस्तर पर काम करते हैं, जिसके परिणाम हम सभी ने देखे हैं।

छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले के बाद ये मांग उठने लगी है कि सेना को वहां पर लगाया जाए, लेकिन ये अतिश्योक्ति है। ऐसे में एक विकल्प ये हो सकता है कि असम राइफल्स और राष्ट्रीय राइफल्स की तरह ही सेना के अंतर्गत एक ऐसे सुरक्षाबल के संगठन का गठन हो, जिसे इन नक्सल प्रभावित इलाकों में आपरेशंस की जिम्मेदारी दी जाए। सेना का नेतृत्व होने के चलते इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप से लेकर कार्यशैली में भिन्नता भी नहीं होगी, जो कि इन नक्सलियों के लिए मुसीबत का सबब होगी।

 

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