कोरोनावायरस के खिलाफ सबसे कारगार कुछ है तो वो वैक्सीन ही है, लेकिन बिहार के कुछ मुस्लिम बहुत कम लोग ही वैक्सिनेशन की प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं। बिहार के शरफुद्दीनपुर गांव के टीकाकरण केंद्र में एक भी मुस्लिम का टीकाकरण नहीं हुआ है। खास बात ये है कि शरफुद्दीनपुर मुजफ्फरपुर जिले में स्थित है, जहां करीब 16 फीसदी मुस्लिम आबादी है। मुस्लिम समाज के लोगों के बीच साक्षरता और जागरूकता की कमी का ही नतीजा है कि मुस्लिम समाज टीकाकरण की प्रक्रिया में पीछे है।
दि प्रिंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, गहरी असुरक्षा, गलत आशंकाएं, मोदी सरकार के प्रति अविश्वास और जानकारी की कमी वो बड़े कारण है कि जिसके चलते बिहार में बहुत कम मुस्लिम समाज टीकाकरण में कम योगदान दे रहा है, ये ठीक TFI के विश्लेषण के अनुसार है, जिसमें हमने बताया था कि कैसे एएमयू में मुस्लिम समाज के प्रोफेसरों ने अंधविश्वास के कारण वैक्सीन नहीं लगवाई और यही उनकी मौत का कारण बनी।
और पढ़ें- “वैक्सीन मारती है, नपुंसक बनाती है”, इन्हीं अफवाहों के चलते गयी AMU के 38 कर्मचारियों की जान
मुस्लिम समुदाय के भीतर कोविड-19 टीकों से संबंधित विभिन्न अफवाहें फैल रही हैं। कई मुसलमानों का मानना है कि टीके बांझपन और नपुंसकता का कारण बनते हैं। पहले शॉट के बाद मौत का कारण बनते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के आसपास मौत और तबाही पिछले कुछ हफ्तों में, एएमयू के 17 शिक्षकों सहित 40 से अधिक शिक्षकों की कोविड या कोविड जैसे लक्षणों से मृत्यु हो गई है।
वहीं कुछ लोगों इसे अपवाद मानते हैं। असल बात ये है कि मुस्लिम समाज के बीच फैली अफवाहों के कारण ये सभी टीकाकरण का विरोध कर रहे हैं, जिसके चलते कोविड के कारण ये लोग मौत का शिकार बन रहे हैं। मुस्लिम समुदाय के सदस्यों के अनुसार, टीके की हिचकिचाहट की मुख्य वजह भाजपा की कथित मुस्लिम विरोधी नीति को बताया गया था। बिहार के एक ग्रामीण ने कहा, “हम नागरिकता संशोधन अधिनियम, नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर, राम मंदिर आदि का समर्थन नहीं कर सकते हैं। इसलिए, यह स्पष्ट रूप से टीकाकरण की आड़ में हमारी आबादी को कम करने के लिए एक दुष्ट चाल है।”
टीकाकरण की लेकर मुस्लिम समाज में हिचकिचाहट कोई नई बात नहीं है क्योंकि पोलियो अभियान के दौरान भी कुछ इसी तरह का विरोध हुआ था। मुस्लिम समाज के लोगों का मानना था कि इस टीकाकरण से उनमें नपुंसकता आ सकती है। घर-घर चलाए गए पोलियो अभियान के दौरान स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों पर हमला किया गया। ऐसे में पुनः टीकाकरण के लिए उनकी सोच का सकारात्मक होना दूर की कौड़ी की तरह ही है।
और पढ़ें- इंदौर के कुल मामलों में 69 प्रतिशत मुस्लिम कोरोना के शिकार, मृत्युदर भी इनमें सबसे ज्यादा
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुई घटना साबित करती है कि ये सभी अफवाहें शिक्षित मुस्लिम लोगों पर बुरा असर डाल रही है और इससे सामान्य लोगों की स्थिति तो अधिक भयावाह होगी। मध्य प्रदेश के इंदौर में मुस्लिम बहुल इलाकों में अप्रैल के समय मौतों की संख्या में असमान्य बढ़ोतरी देखी गई है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इंदौर के चार मुस्लिम कब्रिस्तानों में मार्च के महीने में 130 की तुलना में अप्रैल के पहले छह दिनों में 127 मुसलमानों को दफनाया गया। दिलचस्प बात यह है कि इंदौर वही शहर है, जिसमें पिछले साल कट्टरपंथी मुसलमानों ने जमकर उत्पात मचाया था और स्वास्थ्य कर्मियों पर बेरहमी से हमला किया था।
मुस्लिम समुदाय के रूढ़िवादी वर्गों ने हमेशा धार्मिक आधार पर या साजिश के सिद्धांतों पर टीकाकरण का विरोध किया है। कई मौलवियों ने टीकाकरण के खिलाफ फतवा जारी किया है और इसे मुसलमानों की नसबंदी करने की पिछे की साजिश बताई है। उन्होंने यह भी कहा है कि यह कुरान की शिक्षाओं के खिलाफ है। ऐसे में ये कहने की जरूरत नहीं है कि मुस्लिम समुदाय की अवैज्ञानिक सोच इसकी बड़ी कीमत चुका रही है, क्योंकि समुदाय के कई सदस्य कोविड-19 के कारण असमान रूप से दम तोड़ रहे हैं, और यदि स्थिति ऐसी रही तो इसके नतीजे भयावह होंगे।