जो जीता वही इज़रायल- हालातों को अपने पक्ष में कर नेतनयाहू ने जीता इज़रायल-हमास युद्ध

हमास से इज़रायल का प्रतिघात प्रचंड!

हमास इज़रायल युद्ध : इज़रायल जीता

(PC: The Forward)

नेतनयाहू ने जीता इज़रायल-हमास युद्ध

11 दिनों से जारी इज़रायल-गाज़ा के बीच हिंसक झड़प के बाद आखिरकार दोनों पक्षों ने सीज़फायर करने का ऐलान कर दिया है। माउंट टेम्पल परिसर पर बने अल अक्सा मस्जिद में प्रवेश को लेकर शुरू हुई इस झड़प में दोनों ओर से कई निर्दोष नागरिकों की जान गयी है। हालांकि, प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू के नेतृत्व में इज़रायल ने जवाबी हमलों में आतंकी संगठन हमास और उसके चाटुकारों को इतनी बुरी तरह धोया कि उन्हे संघर्ष विराम की भीख मांगने पर विवश होना पड़ा। ऐसे में हमास-इज़रायल के बीच हुए इस युद्ध में नेतनयाहू विजयी साबित हुए हैं।

जिस प्रकार से अनेक चुनौतियों के बावजूद भारत ने 1965 में पाकिस्तान को सीज़फायर की भीख मांगने पर विवश किया, ठीक उसी प्रकार ने इज़रायल ने हमास को इतना नुकसान पहुंचाया कि अब वो संघर्ष विराम को ही अपनी जीत बताने पर तुला हुआ है। इस प्रकरण से तीन बातें स्पष्ट होती हैं – इज़रायल को हल्के में नहीं लेना चाहिए, हमास की कमर टूट चुकी है और बेंजामिन नेतनयाहू अब सत्ता पर मजबूत पकड़ बना सकते हैं।

सर्वप्रथम बात करते हैं बेंजामिन नेतनयाहू की, जिन्होंने इस पूरे प्रकरण में एक सशक्त नेता की भांति इज़रायल को इस भीषण संकट से सफलतापूर्वक बाहर निकाला। बेंजामिन इज़रायली सेना के जाने माने अफसरों में से एक हैं, जिनके परिवार ने अनेक युद्धों में अपना सर्वस्व अर्पण किया। इनके बड़े भाई, लेफ्टिनेंट कर्नल जोनाथन नेतनयाहू ने 1976 में अपहृत इज़रायली नागरिकों को युगांडा से मुक्त कराने की लड़ाई में अपना बलिदान भी दिया था।

पिछले चार चुनावों से बेंजामिन सत्ता-वापसी का भरसक प्रयास कर रहे हैं, परंतु उन्हें हर बार बहुमत से कम सीटें ही प्राप्त होती आई हैं। लेकिन हमास द्वारा भड़काए गए इस युद्ध ने उनकी छवि को बूस्ट प्रदान किया है, जिसके बाद वे एक बार फिर इज़रायल के प्रधानमंत्री का प्रबल दावेदार बन गए हैं। बता दें कि जिस प्रकार से उन्होंने इज़रायल को इस संकट से बाहर निकाला है, उसके बाद विपक्षी नेता भी उनके कायल हो चुके हैं। स्वयं वाशिंगटन पोस्ट ने एक लेख में स्वीकार किया है कि गाजा में उत्पन्न इस समस्या के कारण अब बेंजामिन ने एक फिर प्रधानमंत्री के लिए अपनी दावेदारी पक्की की है।

लेकिन ये तो केवल शुरुआत है। इस युद्ध में इज़रायल ने सिर्फ हमास की ही नहीं, बल्कि मीडिया और बौद्धिक वर्ग में उपस्थित उसके मददगारों की भी कमर तोड़कर रख दी है। पिछले ग्यारह दिनों में इज़रायल ने न केवल हमास के पूरे टॉप कमांड को, अपितु सुरंगों में छुपे कई हमास आतंकियों को भी ध्वस्त कर दिया है। इतना ही नहीं, इज़रायल ने हवाई हमलों में कई ऐसी Buildings भी ध्वस्त की हैं, जिसमें बीबीसी और अल जज़ीरा जैसे मीडिया हाउस के दफ्तर भी थे, और जिन्हें अक्सर यहूदियों द्वारा फिलिस्तीन का ‘मददगार’ भी कहा जाता है।

लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक बात और साबित हुई – इज़रायल को बिल्कुल भी हल्के में नहीं लेना चाहिए। अमेरिका की सत्ता संभालने के बाद राष्ट्रपति जो बाइडन ने एक विशुद्ध वामपंथी की भांति वो सब किया, जिसके लिए वामपंथी कुख्यात है। बेफालतू के अभियानों को समर्थन देने से लेकर आतंक समर्थन फिलिस्तीन को वित्तीय सहायता देने तक, बाइडन ने अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में कोई कसर नहीं छोड़ी।

तो फिर ऐसा क्या हुआ जिसके कारण बाइडन ने अचानक से इज़रायल को 735 मिलियन डॉलर की युद्ध सामाग्री बेचने के प्रस्ताव को मंजूरी देने की घोषणा की? दरअसल, इज़रायल को अमेरिका के सबसे सशक्त साझेदारों में से एक माना जाता है, और यदि बाइडन वर्तमान प्रकरण में फिलिस्तीन के रुख को बढ़ावा देते, तो न केवल वह हमेशा के लिए इज़रायल से हाथ धो बैठते, अपितु मिडिल ईस्ट पर अमेरिका के प्रभाव पर भी जबरदस्त प्रहार होता। ऐसा इसलिए क्योंकि अब पहले की भांति मिडिल ईस्ट के अधिकतम देश इज़रायल के खून के प्यासे नहीं है, और वे बाइडन की नीतियों से अधिक प्रसन्न नहीं है। ऐसे में इस युद्ध का दबाव बनाकर नेतनयाहू अमेरिका से मनपसंद समझौता पारित कराने में भी सफल रहे।

अब हमास भले ही संघर्ष विराम पर तालियाँ पीट रहे हो, लेकिन असल में विजय इज़रायल की हुई है। साथ ही साथ एक बार फिर बेंजामिन नेतनयाहू ने राष्ट्र के प्रति अपनी अटूट निष्ठा का बेजोड़ उदाहरण दिया है।

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