पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों ने इस बात को साबित कर दिया है, कि बंगाल में ममता बनर्जी के किले को ध्वस्त कर पाना सबसे मुश्किल काम है, और इसीलिए बीजेपी इन चुनावों में पूर्णतः असफल रही है। ऐसे में ममता के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के किए हुए दावों के सिद्ध होने पर उनकी भी तारीफ की जा रही है। वहीं अब प्रशांत किशोर ने राजनीतिक रणनीतिकार के करियर को विराम देने का मन बनाया है, और उनकी महत्वकांक्षाएं दर्शाती हैं, कि वो अब मुख्यधारा की राजनीति में हाथ पैर मारने की कोशिश करेंगे, लेकिन उनके इतिहास को देखें तो कहा जा सकता है कि राजनीति में वो फ्लॉप ही साबित होगें।
प्रशांत किशोर को ममता बनर्जी की जीत का हीरो माना जा रहा है। उन्होंने दावा किया था कि बीजेपी सैकड़ा नहीं पार कर सकेगी, और हुआ भी वही। इसके चलते पीके को एक सफल रणनीतिकार माना जाने लगा है। इसमें कोई शक नहीं है कि प्रशांत किशोर इन चुनावों में सफल हुए हैं, लेकिन ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि प्रशांत किशोर केवल मजबूत राजनीतिक पार्टियों के लिए ही दांव चलते हैं। बंगाल ममता बनर्जी के लिए गढ़ है, वहां भले ही बीजेपी मजबूत हो गई हो, लेकिन चुनौतियां बीजेपी के लिए ही थीं। ममता की लोकप्रियता वहां पीएम से कही ज्यादा ही थी।
इसी तरह तमिलनाडु में जीतने वाली डीएमके को सत्ता विरोधी लहर का बड़ा फायदा मिला है। हालांकि, प्रचंड जीत का दावा करने वाले एग्जिट पोल्स को इन नतीजों ने भी नकारा है क्योंकि सत्ताधारी पार्टी एआईएडीएमके की हार तो हुई लेकिन उसने डीएमके को कड़ी टक्कर दी। इससे पहले बिहार के 2015 विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नाम पर पूरा विपक्ष बीजेपी के साथ खड़ा था, इसके चलते चुनाव एकतरफा हो गया। वहीं 2014 में बीजेपी की जीत में पीके का योगदान तो था, लेकिन पीएम मोदी की लोकप्रियता सब पर भारी थी। ऐसे में ये देखा जा सकता है कि पीके सबसे मजबूत शख्स के साथ ही जाते हैं, और फिर सफलता मिलना स्वाभाविक हो जाता है।
ऐसे में बंगाल चुनाव जीतने के बाद वो ऐलान कर चुके हैं कि वो राजनीतिक रणनीतिकार के करियर को छोड़ रहे हैं, इससे सबसे बड़ा सवाल यही उठता हे कि क्या पीके राजनीति में हाथ आजमाएंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि बीजेपी से उनकी दुश्मनी इसीलिए हुई क्योंकि बीजेपी ने 2014 लोकसभा चुनाव में जीत के बाद उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा नहीं किया। इसके बाद पीके नीतीश कुमार के पीछे खड़े हो गए। नीतीश ने उन्हें सम्मान दिया, और अपनी पार्टी का नंबर दो के स्तर का पद देते हुए जेडीयू उपाध्यक्ष बना दिया।
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जेडीयू में पीके का राजनीतिक करियर बेहद छोटा और विवादों से भरा था, पीके और नीतीश के बीच वैचारिक मतभेद पूरब पश्चिम की भांति ही थे, और फिर कुछ ही वक्त बाद पीके को समझ आ गया कि वो राजनीति के लायक नहीं है, लेकिन अब जब वो ममता को जिताने में कामयाब हुए हैं, तो उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं सामने आ गई हैं। शायद इसीलिए वो अपनी कंपनी आईपैक को छोड़ने का ऐलान कर चुके हैं। प्रशांत किशोर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से इतर अगर देखें तो उनके पास न कोई पार्टी है, न ही कोई संगठन। वो किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल होकर कोई बड़ा पद पा जाएंगे, और फिर एक वक्त बाद उनको अन्य नेताओं की अपेक्षा नजरंदाज ही किया जाएगा, और फिर जैसी घुटन उन्हें जेडीयू में हुई, वैसी ही संभावनाएं फिर बनने लगेंगीं।
ऐसे में बंगाल चुनाव में जीत के बाद पीके को एक सफल रणनीतिकार माना जा सकता है, लेकिन उनके जेडीयू के राजनीतिक इतिहास को ध्यान में रखते हुए ये दावा भी आसानी से किया जा सकता है, कि वो भले ही अच्छे रणनीतिकार हों लेकिन एक सफल राजनेता नहीं हो सकते। ठीक उसी प्रकार जैसे खेल के नियमों का ज्ञाता होने के बावजूद एक अंपायर बेहतरीन बल्लेबाज नहीं बन सकता।