महाविकास अघाड़ी के वसूली उद्योग ने 90 के दशक के बिहार को भी पीछे छोड़ दिया है

महाराष्ट्र वसूली

महाराष्ट्र में इस समय सरकार का एक ही मंत्र है – वसूली परमों धर्म:। चाहे जमीन फटे या आसमान निगल जाए, परंतु वसूली रुकनी नहीं चाहिए। अभी हाल ही में महाराष्ट्र सरकार के मंत्री अनिल परब पर उगाही के आरोप लगे है, और जिस प्रकार से उनकी करतूतें उजागर हुई है, उसे देख तो एक बार को बिहार का जंगल राज भी सयाना लगने लगेगा।

महाराष्ट्र सरकार के इस मंत्री पर 300 करोड़ रुपये वसूलने के आरोप लगे हैं। अमर उजाला की रिपोर्ट के अनुसार, “नासिक के एक निलंबित आरटीओ इंस्पेक्टर गजेन्द्र पाटिल ने परब पर परिवहन विभाग के अधिकारियों की ट्रांसफर व पोस्टिंग में 300 करोड़ रुपये की वसूली करने का आरोप लगाते हुए पंचवटी पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई है। इसके बाद विपक्ष ने अनिल परब के इस्तीफे की मांग शुरू कर दी है”।

पाटिल ने शिकायत पत्र में परिवहन मंत्री अनिल परब, ट्रांसपोर्ट कमिश्नर अविनाश ढाकणे सहित पांच अधिकारियों के खिलाफ करोड़ों की वसूली का आरोप लगाया है। पाटिल की शिकायत के मुताबिक “आरटीओ अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए करोड़ों रुपये की मोटी रकम अनिल परब के इशारे पर वसूली जाती थी। इस तरह 250 से 300 करोड़ रुपये की वसूली की गई है। जानकारी के अनुसार यह शिकायत 15 मई को दी गई थी जिसमें कहा गया है कि इस वसूली रैकेट का मास्टरमाइंड वर्धा में तैनात डिप्टी आरटीओ बजरंग खरमाटे है, जो अनिल परब के इशारे पर ट्रांसपोर्ट कमिश्नर के साथ मिलकर ट्रांसफर-पोस्टिंग का रैकेट चलाता है”।

इस आरोप के पश्चात पुलिस सीधे-सीधे अनिल परब पर FIR करने से बच रही है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अनिल परब शिवसेना के बेहद वरिष्ठ नेताओं में शामिल रहे हैं, जो बालासाहेब ठाकरे के समय से पार्टी के साथ हैं।

लेकिन जो शिकायत दर्ज हुई है, और जिस प्रकार के साक्ष्य सामने आए हैं, उसे देखकर तो यही लगता है कि जो काम एनसीपी के लिए अनिल देशमुख करते थे, वही शिवसेना के लिए अनिल परब करते थे। जिस समय महाराष्ट्र वुहान वायरस के कारण कराह रही है, उस समय भी महाराष्ट्र के लिए वसूली करना प्रथम प्राथमिकता रही है।

आज जो अनिल परब द्वारा 300 करोड़ की वसूली का मामला सामने आया है, वो यही उजागर करता है कि महाराष्ट्र वसूली के मामले में 90 के दशक की बिहार सरकार से भी दस कदम आगे निकल चुका है। लेकिन दोनों में एक स्पष्ट अंतर था।

90 के दशक में जब उगाही होती थी, तो नेता अपने गुंडे भेजते थे। मोहम्मद शहाबुद्दीन ऐसे ही कुख्यात नहीं हुए थे। लेकिन महाराष्ट्र में ये काम नेता स्वयं करने में सक्षम है। इसीलिए अनिल देशमुख और अनिल परब जैसे नेता स्पष्ट तौर जनता को लूटे खसोटते हुए नजर आते हैं।

इसके अलावा अनिल देशमुख वाले मामले से स्पष्ट नजर आता है कि वक्त आने पर यही नेता अपने सहयोगियों को उसी तरह निकाल फेंकते हैं, जैसे चाय में से मक्खी। जब तक वसूली सही चल रही थी, परम बीर सिंह और सचिन वाझे उनके प्रिय थे। लेकिन जैसे ही उनकी पोल खुली, इन दोनों को तुरंत निकाल दिया गया। हालांकि, अनिल का यह दांव उन्हीं पर भारी पड़ा, और उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।

इसीलिए अनिल परब का मामला चिंताजनक अवश्य है, परंतु आश्चर्यजनक नहीं। लेकिन जिस प्रकार से महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार वसूली कर रही है, वो आगे चलकर उनके लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है।

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