बंगाल के बीमारू राज्य बनने की कहानी
अक्सर हमने ‘बीमारू’ राज्यों की श्रेणी के बारे में सुना है, जो 90 के दशक में भारत के सबसे पिछड़े और निकृष्ट राज्य माने जाते थे। बीमारू राज्य में वामपंथियों के प्रिय राज्य जैसे बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश शामिल थे। हालांकि, एक ऐसा भी राज्य है, जो आज भी बिहार जितना या फिर उससे भी अधिक ‘बीमारू’ है, परंतु उसके बारे में लोग उतना नहीं जानते हैं, जितना अन्य राज्यों से वह परिचित हैं। ये बीमारू राज्य हैं बंगाल, जो कभी भारत की ‘लाइफलाइन’ हुआ करता था।
एक समय पर बंगाल भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक राजधानी हुआ करता था। 1912 में भले ही भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित कर दी गई हो, परंतु कोलकाता और बंगाल की अहमियत भारत में कहीं से भी कम नहीं हुई थी। यहाँ तक कि आजादी के 20 वर्षों बाद तक कोलकाता की छवि भारत में एक अहम औद्योगिक एवं सांस्कृतिक केंद्र के तौर पर थी।
कम्यनिस्ट शासन के आते ही बंगाल की अर्थव्यवस्था को मानो ग्रहण लग गया
परंतु 1967 में कम्युनिस्ट शासन आते ही मानो बंगाल की प्रगति को ग्रहण लग गया और यह बीमारू राज्य की श्रेणी में आ गया । उस दिन से लेकर 2011 तक बंगाल से उद्योग और आर्थिक प्रगति ऐसे गायब हुई, जैसे गधे के सर से सींग। हालांकि, इस बारे में आज तक लोगों को कोई भनक नहीं लगने पाई, क्योंकि भारतीय मीडिया वामपंथियों के हाथों पहले ही बिकी हुई थी।
यदि ऐसा नहीं है, तो फिर ये कैसे हो सकता है कि 1990 से लेकर 2000 तक में जिस समय भारत की औसत आर्थिक वृद्धि दर 4.5 से कुछ ही ज्यादा थी, वहीं बीमारू राज्य पश्चिम बंगाल कम्युनिस्ट शासन में रहने के बाद भी साढ़े 5 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा था?
अब 2011 में जब ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस की ओर से सत्ता संभाली थी, तो सभी को आशा थी कि बंगाल की ‘ममता दीदी’ अब बंगाल की प्रगति को वापिस पटरी पर लाएंगी और बंगाल को बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर निकलेगी लेकिन अफसोस, ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। 2011 से लेकर 2020 तक में बंगाल की वार्षिक आर्थिक वृद्धि दर पहले के मुकाबले नीचे ही गई है, जो 4.9 प्रतिशत से गिरकर 4.2 हो चुकी है। यदि ये आधिकारिक दर के अनुसार ऐसा है, तो सोचिए वास्तविक आर्थिक वृद्धि का दर कितना होगा।
बंगाल की आर्थिक वृद्धि दर 0.3 प्रति वर्ष से भी कम है और ये बीमारू राज्य का प्रमाण है
पश्चिम बंगाल के बीमारू राज्य होने की सच्चाई तब दिखाई देती है, जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि पर प्रकाश डाला जाए। 1993 से लेकर 2000 के बीच में बंगाल के ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर 2.3 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से कहीं नीचे 0.3 प्रतिशत थी। हालांकि, ममता के आने के बाद से इस दर में काफी सुधार का दावा किया गया है, परंतु ममता के शासन को देखते हुए इसकी आशा बहुत ही कम लगती है।
लेकिन हम में से किसी को भी क्या कभी इस बात का आभास हुआ, और क्या कभी भी हमें पता चलने दिया गया कि बीमारू राज्य बंगाल की हालत कितनी खराब है? नहीं, क्योंकि इससे वामपंथियों, विशेषकर भद्रलोक श्रेणी के पत्रकारों का एजेंडा ध्वस्त हो जाता, और बंगाल एक आदर्श राज्य नहीं होता। मिर्ज़ापुर सीरीज में एक संवाद बहुत उचित कहा गया है, ‘राजनीति में तुलना उसी से की जाती है, जो आपसे कमजोर हो’। यदि बंगाल की असलियत लोगों के सामने आती, तो ‘बीमारू’ राज्यों को लेकर वामपंथियों की दुकान कैसे चलती।
हालांकि, ममता बनर्जी के दस वर्ष के शासन के बाद भी बंगाल की स्थिति जैसी बनी हुई है, उससे स्पष्ट पता चलता है कि कैसे भद्रलोक श्रेणी के पत्रकारों ने बड़ी चतुराई से बंगाल की सच्चाई पूरे देश और दुनिया से छुपा कर रखी है। कभी जो देश की ‘लाइफलाइन’ माना जाता था, आज वही बंगाल देश के सबसे बीमारू राज्य में शामिल है, परंतु वामपंथियों की माने तो ऐसा कुछ है ही नहीं, सब चंगा सी!
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