‘गदर’ के 20 वर्ष – वो फिल्म जिसने भारत के विभाजन पर बॉलीवुड का नज़रिया ही बदल दिया

‘ज़िंदगी कितनी ही बेरहम क्यों न हो, जीना तो पड़ता है मैडम जी’!

गदर poster

Punjab Kesari

प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक अनिल शर्मा की फिल्म ‘गदर’ – एक प्रेम कथा

वो दिन गए जब भारत की कथित पंथनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए उल जुलूल नारे लगाए लगाये जाते थे और नग्न वास्तविकता से जानबूझकर मुंह मोड़ा जाता था। वो वास्तविकता जिसके कारण लाखों करोड़ों निर्दोष हिंदुओं और सिखों को रातों रात उनके घरों से धक्के मारकर निकाल दिया गया। कई लाख बच्चे रातों रात अनाथ हो गए और जाने कितनी महिलाओं की इज्जत लूटी गईं, परंतु 20 साल पहले एक फिल्म प्रदर्शित हुई, जिसने मानो इन जख्मों पर एक प्रकार का मरहम लगाया और बिना कुछ अधिक कहे देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों के मुख पर एक ऐसा तमाचा जड़ा कि वह आज भी इस फिल्म की खुलेआम आलोचना नहीं कर पाते हैं।

यह फिल्म है प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक अनिल शर्मा की फिल्म ‘गदर’ – एक प्रेम कथा’। गदर में मुख्य भूमिकाओं में थे सनी देओल, अमीषा पटेल, अमरीश पुरी इत्यादि। गदर फिल्म आज ही के दिन ऑस्कर में नामांकित होने वाली ‘लगान’ के साथ ही रिलीज हुई थी, परंतु इसके बावजूद गदर न केवल आमिर खान की बहुप्रतिष्ठित फिल्म के समक्ष टिकी, बल्कि बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे भी गाड़ें। ये उन चंद फिल्मों में से है, जिसने भारत के विभाजन पर बुद्धिजीवियों के तलवे नहीं चाटे और इसके बावजूद उसकी बॉक्स ऑफिस सफलता को कोई नुकसान नहीं हुआ।

भारत के विभाजन के बारे में फिल्में बहुत शुरुआत से ही बनती चली आ रही है, परंतु आश्चर्यजनक रूप से लगभग सभी फिल्मों में जो दोषी हैं, उन्हे पीड़ित के तौर पर दिखाया गया है। इसकी शुरुआत किसी और ने नहीं, स्वयं यश चोपड़ा ने की, जिन्होंने 1959 में विभाजन के परिप्रेक्ष्य में बनाई ‘धूल का फूल’ नामक फिल्म में मुसलमानों को शोषितों के तौर पर और हिंदुओं एवं सिखों को क्रूर, बर्बर शोषकों के तौर पर दिखाया गया।

जो प्रथा यश चोपड़ा ने शुरू की, वो जल्द ही स्टॉकहोम सिंड्रोम के सबसे घटिया उदाहरणों में से एक में बदल गईं। विभाजन पर कोई भी बॉलीवुड की फिल्म हो, दिखाया यही जाता था कि पीड़ित मुसलमान थे और दोषी हिन्दू और सिख। चाहे एम एस सत्यू की गरम हवा हो या दीपा मेहता की निर्देशित 1947 अर्थ, विभाजन को ऐसा चित्रित किया जाता था मानो ये सब हिंदुओं और सिखों के कुकर्मों का स्वाभाविक दुष्परिणाम है। भला हो करण जौहर की ‘कलंक’ उस समय प्रदर्शित नहीं हुई, वरना वह फिल्म एक ‘बेजोड़ उदाहरण’ होती कि विभाजन के लिए जानबूझकर हिंदुओं को दोषी कैसे बनाना चाहिए।

पर यहीं पर ‘गदर’ सबसे अलग थी। पहली बार कोई विभाजन को चित्रित करने के नाम पर बुद्धिजीवियों के तलवे नहीं चाट रहा था। उलटे उन्होंने वहीं प्रहार किया जहां उन्हें सबसे अधिक चिढ़ मचती है। जिस प्रकार से प्रारंभ के दृश्यों में देश का विभाजन दिखाया गया और जिस प्रकार से निर्देशक ने बिना किसी द्वेष से हिंदुओं, सिखों और यहाँ तक कि मुसलमानों की पीड़ा को समान रूप से दिखाया, उससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि गदर किन मायनों में अन्य फिल्मों से अलग थी। निस्संदेह इस फिल्म में कई मसालेदार तड़के थे, पर अपने समय के लिए भी ये काफी यथार्थवादी और भावनापूर्ण थी।

सनी देओल अपने एक्शन रोल के लिए ज्यादा जाने जाते हैं, परंतु तारा सिंह जैसे सौम्य रोल में उन्होंने सभी को चकित कर दिया। अमीषा पटेल को फिल्म उद्योग में आए एक वर्ष भी नहीं हुआ था, परंतु सकीना के रूप में उन्होंने सबका मन मोह लिया। विवेक शौक ने दरमियान सिंह के रूप में सबको लोटपोट किया, तो वहीं अमरीश पुरी ने अशरफ अली के रूप में लोगों का मन भी मोहा और उन्हें क्रोधित भी किया। आज भी आप ये नहीं कह सकते कि आप गदर के संगीत से चिढ़ते हो और कोई पागल ही होगा जो कहेगा, मुझे ‘उड़ जा काले काँवाँ’/ ‘मैं निकला गड्डी लेके’ नहीं पसंद है।

लेकिन जब गदर सिनेमाघरों में लगी थी, तो उसे भी कम विरोध का सामना नहीं करना पड़ा था। कट्टरपंथी मुसलमानों को अपने सामने अपने बीते हुए कल का ऐसा सटीक चित्रण भला क्यों सुहाता? सो उन सब ने खूब उत्पात मचाया, लेकिन फ़िल्मकारों को रत्ती भर भी फरक नहीं पड़ा और फिल्म महीनों तक बॉक्स ऑफिस पर ‘गदर’ मचाती रही। 20 साल बाद भी आज लोग गदर और तारा सिंह के दीवाने हैं और 20 साल बाद भी पाकिस्तानी तारा सिंह के ‘हैन्ड पंप’ के ख्याल से कांप उठते हैं!

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