कांशीराम द्वारा गठित दलितों की कथित हितैषी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अब उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश की राजनीति में अप्रासंगिक होती जा रहा है। 2022 के विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी तैयारियों में जुट गई है, तो वहीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव आए दिन किसी कुतर्क के कारण चर्चा में बने रहते हैं।
इसके विपरीत एक समय यूपी की राजनीति में महत्वपूर्ण मानी जाने वाली बसपा का नाम लेने वाला आज कोई नहीं है। पार्टी सुप्रीमो मायावती 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से ही हाशिए पर जा चुकी हैं। वहीं 2019 के बाद तो पार्टी का अस्तित्व ही ख़तरे में आ गया है। इन सबके बावजूद बसपा के खेमे में चुनाव के पहले की शांति बता रही है, कि मायावती और बसपा की राजनीति अब खत्म ही हो चुकी है।
मायावती की राजनीति के लिए 2007-2012 का समय स्वर्णिम काल माना जाता है। विधानसभा की 403 सीटों में से 206 जीतकर बसपा जब सदन में पहुंची तो सभी ने बसपा सुप्रीमो मायावती का लोहा माना था, लेकिन सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचारों, मुस्लिम तुष्टिकरण, लखनऊ के पार्कों समेत मूर्तियों के प्रकरण ने मायावती की दलित हितैषी छवि की मिट्टी पलीद कर दी।
नतीजा ये पार्टी को 2012 के चुनाव में करारी हार मिली, लेकिन बसपा के लिए 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी की लहर राजनीतिक काल बन गई। पार्टी को चुनाव में शून्य मिला जहां से पार्टी कभी उबर ही नहीं पाई।
मायावती ने कभी ब्राह्मण-दलित कॉम्बीनेशन बनाया तो कभी मुस्लिम-दलित, लेकिन एक वक्त के बाद मायावती पर अपर कास्ट विरोधी होने का टैग लग गया। जब बसपा ने ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ का नारा लगाया, तो पार्टी दलित-मुस्लिम समीकरण तक ही सीमित रह गया गई, जिस तरह सपा मुस्लिम-ओबीसी और यादव समीकरण बनाकर चलती थी।
वहीं 2014 में दलित समाज मायावती को छोड़ बीजेपी की तरफ कूच कर गया, जिसका नतीजा ये कि पार्टी हाशिए पर चली गई।
बीएसपी की राजनीति की बात करें तो पार्टी को नॉन यादव ओबीसी, कोर जाटव और मुस्लिम वोट मायावती के हिस्से में ही आता था लेकिन मायावती को असल झटका बीजेपी ने दिया। पीएम मोदी की छवि के कारण पिछले तीन चुनावों में बीजेपी को नॉन जाटव, नॉन यादव का पूरा वोट मिला और इनके बीच मायावती की लोकप्रियता शून्य हो गई।
मुस्लिम समाज तो अखिलेश की सपा और कांग्रेस में तुष्टीकरण के कारण ऐसा बंट गया है कि आज कुछ मुस्लिम बहुल सीटों को छोड़ दें, तो ये वोट बैंक ही नहीं रहा है। वहीं एक बड़ा दलित वोट बैंक पीएम मोदी की जन-धन, गैस सिलेंडर और शौचालय जैसी नीतियों के कारण मायावती से छिटकर पीएम मोदी के समर्थन में चला गया है। वहीं मायावती को यादव समुदाय का वोट न के बराबर ही मिलता है।
इसकी वजह दलित बस्तियों में यादवों द्वारा की गई प्रताड़ना मुख्य वजह है। दलित समाज का वोट मायावती के पास था जो छिटक कर पीएम मोदी के हिस्से चला गया।
मायावती से पहले कांशीराम ने यूपी की राजनीति के लिए अलग-अलग जाति के नेताओं को जोड़कर एक वोट बैंक का कॉम्बिनेशन बनाया था, लेकिन ये सारा कॉम्बिनेशन मायावती ने एक जाति तक सीमित करके बिखेर दिया।
सवर्ण विरोधी उनकी स्कीमें बसपा को भारी पड़ी। ओपी राजभर से लेकर आर के चौधरी, लालजी वर्मा, राम अचल राजभर, बाबू सिंह कुशवाहा समेत इंद्रजीत सरोज और राम प्रसाद जैसे नेता बसपा से अलग होकर या तो अन्य पार्टियों शामिल हो गए या इन्होंने अपनी ही नई पार्टी बनाकर खुद को एक ही इलाके तक सीमित कर लिया, जिसका सीधा नुकसान मायावती के हिस्से आया।
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2019 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी के हिस्से 10 सीटें तो आईं लेकिन उसकी वजह मायावती नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों का गठबंधन था। हमेशा की तरह मायावती ने काम निकलने के बाद अखिलेश को धोखा देते हुए गठबंधन तोड़ दिया, क्योंकि पार्टी को उम्मीद से बेहतर 0 से अचानक 10 सीटें मिल गईं।
इसके बावजूद अगर पिछले दो सालों को देखें तो मायावती अपने निवास से निकलकर जनता के बीच कभी गईं ही नहीं। वर्क फ्रॉम होम की उनकी कार्यशैली अब राजनीतिक रूप से उनके लिए खतरनाक हो गई है। 2017 में भले ही पार्टी ने 19 सीटें जीतीं हों, लेकिन पार्टी के पास आज की स्थिति में केवल 7 विधायक ही हैं।
मायावती की बसपा का सामना उस पार्टी (बीजेपी) से है, जिसके कार्यकर्ताओं ने पुनः डोर टू डोर कैंपेन की तैयारी कर ली है। दूसरी ओर जनता से मायावती की दूरी और भ्रष्टाचारी चेहरे के अलावा पार्टी में किसी अन्य नेता का न होना बसपा के लिए मुसीबत बन गया है।
पिछले 10 साल के उत्तर प्रदेश की राजनीति के इतिहास को ध्यानपूर्वक देखें तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस के अप्रासंगिक होने के बाद अब 2022 के विधानसभा चुनावों की समाप्ति के साथ ही मायावती का राजनीतिक करियर और उनकी पार्टी बसपा का राजनीतिक भविष्य भी रसातल में चला गया है, जिसकी जिम्मेदार भी उनकी ही सेल्फ गोल वाली नीतियां हैं।