बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में फुटपाथ पर रहने वालों और भीख मांगने वालों के परिप्रेक्ष्य में एक बेहद अहम निर्णय सुनाया है। अक्सर हमने सुना है कि सरकार पर गरीब और निराश्रितों के लिए मुफ़्त सुविधाओं हेतु दबाव बनाया गया है, लेकिन एक साहसिक निर्णय में बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि हर सुविधा देने के लिए सरकार बाध्य नहीं है और गरीबों एवं निराश्रितों को सभी सुविधाएँ सरकार ही देंगी, तो बाकी क्या करेंगे?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, बॉम्बे हाईकोर्ट के प्रमुख न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायाधीश गिरीश एस कुलकर्णी एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रहे थे। उनके अनुसार, यदि बेघर और निराश्रितों से मुफ़्त की सुविधाओं के बदले सरकार ने ‘काम नहीं कराया’, तो इससे सिर्फ बोझ ही बढ़ेगा।
दरअसल, पहचान नामक एक एनजीओ ने क्रांति एलसी नामक अधिवक्ता के जरिए एक जनहित याचिका दायर की। इस याचिका के जरिए कोविड के नाम पर गरीबों और निराश्रितों के लिए दिन में तीन बार मुफ़्त भोजन, मुफ़्त आश्रय, साफ सुथरे शौचालय एवं स्नानागार, स्वच्छ पानी, साबुन, एवं सैनिटरी पैड की व्यवस्था करने को कहा गया।
इस पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा, “उन्हें [निराश्रित] भी देश के लिए काम करना चाहिए। उन्हें अगर हम आश्रय देते हैं, तो क्या गारंटी है कि वे काम भी करेंगे? सरकारी स्कीम के अंतर्गत उनके लिए रोजगार और आश्रय के उचित अवसर हैं। सभी काम कर रहे हैं। अब अगर सरकार सब कुछ देगी तो इससे उनकी आबादी दिन प्रतिदिन बढ़ती ही चली जाएगी। आप लोग [याचिकाकर्ता] सिर्फ आबादी बढ़ाने में सहयोग कर रहे हो, और कुछ नहीं”।
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जिस प्रकार से बॉम्बे हाईकोर्ट ने पहचान एनजीओ पर हर जिम्मेदारी सरकार पर थोपने वाली प्रवृत्ति के लिए आलोचना की है, वो अपने आप में सराहनीय है। जब सारे काम सरकार को ही करने हैं, तो उद्योग और अन्य कंपनियां किस काम के लिए हैं? क्या उनका कोई मोल नहीं?
बॉम्बे हाईकोर्ट का निर्णय एक प्रकार से जनसंख्या वृद्धि और समाजवाद दोनों पर ही करारा प्रहार है। जहां एक तरफ वे ये सुनिश्चित कर रहे हैं कि देश के संसाधन गलत जगह न जाएँ, तो वहीं दूसरी तरफ वे ये भी देखना चाहते हैं कि जिन संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है, वह सही जगह हो रहा है कि नहीं। ऐसे में बॉम्बे हाईकोर्ट के इस निर्णय को देशभर के लिए एक मिसाल के तौर पर माना जाना चाहिए, और इससे हम सभी को एक सीख लेनी चाहिए।