1962 की झलक 2021 में: CPC के शताब्दी समारोह में येचुरी, डी राजा समेत कई वामपंथी नेता हुए शामिल

ये हमेशा से चीनी समर्थक रहे हैं!

वामपंथी पार्टी

अन्य देशों की तुलना में, कम्युनिस्ट चीन के पास एक स्ट्रेटेजिक लाभ है, ठीक उसी तरह जैसे सोवियत संघ का अपने चरम के दिनों में था। यह लाभ कुछ और नहीं, बल्कि लगभग सभी देशों में मौजूद वामपंथी पार्टियों के रूप उसके गुलाम हैं। ये गुलाम अपने मालिक यानी CCP के इशारों पर नाचने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। यही नहीं यह जासूसों के एक नेटवर्क की तरह भी काम कर CCP के लिए सहानुभूति जुटाने का प्रयत्न करते हैं। भारत में भी वामपंथी पार्टी CCP के पालतू गुलामों में शीर्ष पर है। चाहे वो 1962 का युद्ध हो या फिर डोकलाम या फिर हाल ही में हुए गलवान घाटी में चीन साथ झड़प, सभी में भारत की वामपंथी पार्टी चीन के समर्थन में ही थीं। अब तो एक कदम आगे बढ़ते हुए CCP के कार्यक्रमों में भी पंहुचने लगे हैं।

दरअसल, 28 जुलाई को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में चीनी दूतावास ने एक कार्यक्रम आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के अंतर्राष्ट्रीय विभाग के काउंसलर,  Du Xiaolin के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता सीताराम येचुरी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के नेता डी राजा, लोकसभा सांसद एस सेंथिलकुमार, जी देवराजन जैसे भारत के नेताओं ने भाग लिया। यह वही CCP है जिसके कारण पिछले वर्ष गलवान घाटी में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गये थे। यानी भारत की वामपंथी पार्टियां आज भी उसी तरह CCP के सामने दुम हिला रही हैं जैसे 1962को समर्थन देकर किया था।

कुछ दिनों पहले 1 जुलाई को, जब सीपीसी ने 100 साल पूरे किए, वामपंथी आउटलेट द हिंदू ने चीन की वामपंथी पार्टी के 100 साल पूरे होने पर एक पूर्ण-पृष्ठ का विज्ञापन प्रकाशित किया था। यही नहीं येचुरी समेत कई अन्य नेताओं ने उस दिन चीन की वामपंथी पार्टी को बधाई दी थी। अब इन पार्टियों ने CCP द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भाग लेकर बता दिया है कि ये चीनी एजेंट से कम नहीं हैं।

आज भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां चीन को ही अपना पितृभूमि समझती हैं तभी तो उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध में चीन का पक्ष लिया था।

उसी दौरान जब चीन और भारत समर्थक सोवियत संघ के विभाजन ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को हिलाकर रख दिया, तो भारत में भी इसके झटके महसूस किए गए। उसी दौरान सीपीआई में एक चीनी समर्थक गुट का गठन किया गया था, जो 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान चीन का समर्थन किया करता था।

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस सरकार को पूर्ण समर्थन देने से इनकार करने पर सभी चीनी समर्थक मार्क्सवादी नेताओं को ‘चीनी जासूस’ कहते हुए, विश्वासघात के लिए जेल में डाल दिया था। युद्ध के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर इस विभाजन ने अंततः 1964 में CPM के गठन का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसा लगता है अब CPI (M) अपने जन्म के लिए चीन का अभी तक धन्यवाद कर रही है।

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यही नहीं उस दौरान कम्युनिस्ट पार्टी ने तत्कालीन CPM पोलित ब्यूरो के सदस्य वी एस अच्युतानंदन को भारतीय सेना के सैनिकों के लिए रक्तदान शिविर आयोजित करने का सुझाव देने मात्र के कारण वामपंथी पार्टी से बर्खास्त कर दिया था।

स्पष्ट है कि जिन्होंने भी भारत-समर्थक लाइन अपनाई, उसे वामपंथी ने पार्टी-विरोधी घोषित कर दिया। उन्होंने विचारधारा का हवाला दिया और उसे राष्ट्र से ऊपर रखा।

CPM ने अच्युतानंदन को डिमोट करते हुए कहा कि उन्होंने पार्टी से सलाह किए बिना जवानों को रक्तदान करने का फैसला किया है। उनके इस कदम से भारत सरकार को मदद मिली और इसलिए यह कार्रवाई पार्टी विरोधी थी। यही भारत की वामपंथी पार्टी की वास्तविकता है।

उस दौरान एक पोस्ट भी प्रचलन में आया था जिसमें बंगला में लिखा था, “चीनी अध्यक्ष हमारे अध्यक्ष हैं।”

2017 में जब डोकलाम में भारत और चीन के बीच गतिरोध हुआ था तब भी सीपीआई (एम) ने चीन के खिलाफ एक भी शब्द बोले बिना भारत सरकार की आलोचना की थी। यही हाल गलवान घाटी में हुए झड़प के बाद भी देखने को मिला था जब कम्युनिस्ट पार्टी के चार लोग मिलकर विरोध कर रहे थे।

1962 के युद्ध के बाद से लिए गए स्टांस भारत की वामपंथी पार्टियां “China sympathizer” के रूप में टैग करती हैं। अब CCP के कार्यक्रम भाग लेना यही स्पष्ट करता है कि इन वामपंथियों में 1962 के बाद से आज भी कुछ नहीं बदला है।

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