लालू प्रसाद यादव का नाम आते ही सबसे पहले उनका जंगलराज याद आता है। बिहार की वो कहानी जब शाम सात बजे के बाद लोगों का सड़कों पर घूमना दुश्वार था, लेकिन इन सब के बाद भी बिहार ने 15 वर्षों तक लालू का शासन देखा और लालू का समर्थन किया तो इसके पीछे कई ऐसे नेताओं का हाथ था जो लालू के साथ उनके हर अच्छे बुरे दिन में स्तंभ की तरह खड़े रहे, लेकिन आज ऐसे वरिष्ठ नेताओं की पार्टी में कोई पूछ नहीं है। RJD को अपनी पैतृक संपत्ति मानने वाले लालू के दोनों बेटों को यह समझ नहीं आ रहा कि कोई भी दल एक नेता से नहीं बनता, बल्कि उस एक नेता के साथ खड़े हुए उसके विश्वसनीय कार्यकर्ताओं से बनता है। लालू के ऐसे ही विश्वसनीय सहयोगियों में एक नाम जगदानन्द सिंह का है, जो आज पार्टी में उपेक्षित पड़े हुए हैं।
1985 से 2009 में सांसद बनने से पहले तक कैमूर से लगातार विधायक रहे जगदानन्द कि छवि जननेता की थी। वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने वाले जगदानन्द लोहिया और जयप्रकाश की परिपाटी के समाजवादी नेता रहे हैं। 1975 में देश इमरजेंसी में कैद था और जयप्रकाश (JP) ने इंदिरा गांधी के खिलाफ जनविद्रोह का आह्वान किया था। उस समय कई युवा नेताओं ने JP आंदोलन में हिस्सा लिया, नरेंद्र मोदी से लेकर लालू प्रसाद यादव तक बहुत से नेता उसी आंदोलन की पैदावार हैं।
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उसी आंदोलन में लालू प्रसाद और जगदानन्द साथ आए और यह साथ आज तक बना हुआ है। बिहार में समाजवादी आंदोलन के बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद बिहार में जनता दल का नेतृत्व कौन करेगा, इसे लेकर संशय बना हुआ था। कर्पूरी ठाकुर बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे और उनकी मृत्यु के बाद लालू की नजर नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर थी। यह तय था कि जो नेता प्रतिपक्ष होगा अगले विधानसभा चुनाव में वह मुख्यमंत्री पद का दावेदार होगा।
लालू के लिए नेता प्रतिपक्ष बनना बहुत कठिन था, लेकिन तब जगदानन्द सिंह उनके सारथी बने। नीतीश कुमार और शरद यादव के साथ मिलकर उन्होंने लालू प्रसाद के लिए लॉबिंग की और लालू को जनता दल का बिहार में सर्वमान्य नेता बनाया।
इसके बाद लालू मुख्यमंत्री बने। लालू की वाक्पटुता और संघर्षशील नेतृत्व उनकी विशेषता थी, इसलिए जगदानन्द जैसे पार्टी के कई वरिष्ठ लोग उनके पीछे खड़े हो जाते थे। लालू ने भी आजीवन जगदानन्द की कीमत समझी और उनको पूरा सम्मान दिया।
जगदानन्द बिहार के उन नेताओं में हैं जो नैतिकता और आदर्श को अपनी राजनीति में सबसे ऊपर रखते हैं। यहाँ तक कि उन्होंने, 2010 के विधानसभा चुनाव में, अपने ही बेटे सुधाकर सिंह के विरुद्ध एक साधारण कार्यकर्ता को चुनाव लड़वाया, उसके पक्ष में प्रचार किया और उसे जीत भी दिलाई। सिर्फ इसलिए क्योंकि वह स्वयं आजीवन भाई-भतीजावाद के विरोधी रहे थे। उनके इसी व्यक्तित्व के कारण स्वयं प्रधानमंत्री भी उनकी तारीफ कर चुके हैं और उन्हें कहा है कि वह गलत दल में फंसे हैं।
हालांकि, लालू के युवराज जगदानन्द के त्याग और समर्पण की कीमत नहीं जानते। पार्टी में राजकुमारों की ओर से किए जा रहे भेदभाव के कारण जगदानन्द ने अपना इस्तीफा तक लालू प्रसाद यादव को भेज दिया था। हालांकि, पुरानी मित्रता की दुहाई देकर लालू ने उन्हें समझा लिया। लेकिन इसके बाद जब जगदानन्द सिंह प्रदेश अध्यक्ष बने तो भी उन्हें लगातार तेजस्वी और तेजप्रताप की ओर से परेशान किया जाता रहा। इसी कारण उन्होंने अध्यक्ष पद से भी इस्तीफे की पेशकश की थी।
जगदानन्द सिंह का RJD में रहना विरोधाभास की पराकाष्ठा है। जो व्यक्ति आजीवन नेपोटिज्म का विरोधी रहा, वह एक ऐसे दल में कैसे रह सकता है, जो एक परिवार की जागीर है। आदर्शवाद की राजनीति करने वाले जगदानन्द सिंह ने, लालू के जंगलराज का मौन समर्थन करके पहले ही एक अधर्म किया है। कम से कम अब वह RJD को छोड़ बिहार के विकास में योगदान दें तो यह बहुत अच्छा होगा।