जातीय आधार पर देखा जाए तो वर्ण व्यवस्था के हिसाब से भारत में ब्राह्मण सर्वोच्च स्थान पर विराजते आए हैं। कई राज्यों में चुनावी जीत के लिए ब्राह्मण वर्ग का धुव्रीकरण भी ख़ूब होता है। उत्तर-प्रदेश में तो स्थिति ये है कि ब्राह्मण विरोध में उपजी पार्टियां ब्राह्मण सम्मेलन करने के लिए मजबूर हैं।
दलित-शोषित वर्ग के उत्थान के लिए बनी बहुजन समाज पार्टी और यादव-मुस्लिम वोटों के बल पर राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी अब ब्राह्मण एकता और उनके संरक्षण की बातें कर रही हैं। याद हो कि ये वही बसपा सुप्रीमो मायावती हैं जिन्होंने “तिलक (ब्राह्मण) तराज़ू (वैश्य) और तलवार (क्षत्रिय)- इनको मारो जूते चार” जैसा नारा दिया था। सपा के शासन में यादवों को तरजीह देते हुए कई बार राज्य में हिंसा हुई जिसमें सर्वाधिक निशाना “ब्राह्मण” ही रहे। आज ये लोग जब ब्राह्मणों पर हो रहे अत्याचार की दुहाई देते दिखते हैं तो इनकी धूर्तता साफ-साफ दिखती है।
बसपा और सपा राम मंदिर के विरोध में अंत तक खड़े रहे। मुलायम सिंह यादव ने तो कारसेवकों पर गोलियां तक चलवा दीं। आज यही दोनों प्रमुखता से राम मंदिर बनने पर अपनी खुशी व्यक्त करते दिखते हैं, क्योंकि विधानसभा चुनाव नजदीक है।
ब्राह्मण वर्ग का भारत के वैदिक धर्म से आरम्भ होता है। वास्तव में ब्राह्मण कोई जाति विशेष ना होकर एक वर्ण है। दक्षिण भारत में द्रविड़ ब्राह्मण को ही कहा जाता है, भारत का मुख्य आधार ही ब्राह्मणों से शुरू होता है।
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सपा और बसपा को समझ आ गया है कि ब्राह्मण के वजूद पर प्रश्न उठाना अपने वोट पर चोट करना होगा। तभी तो आज ये दोनों पार्टियां “ब्राह्मणों” के हितों की बात करने लगी हैं, जिन्होंने पूर्व में अपने निश्चित वोट बैंक को खुश करने के लिए ब्राह्मणों का ख़ूब उत्पीड़न किया।
ब्राह्मण वोट का एक बड़ा प्रभाव उत्तर प्रदेश में वर्ष 2007 के चुनावों में नजर आया, जब बीएसपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। उस वक्त बीएसपी से 41 ब्राह्मण विधायक चुनकर आए थे। 2007 में मायावती ने SOCIAL ENGINEERING का फॉर्मूला लगाकर दलित -ब्राह्मण वोट अपनी ओर करते हुए 403 में से 206 सीटों पर जीत दर्ज़ की थी। इसके बाद तो प्रत्येक पार्टी की नजर ब्राह्मण वोटों पर रही और वहीं अगले 2012 के चुनावों में समाजवादी पार्टी ने इसी ब्राह्मण कार्ड का उपयोग करते हुए सत्ता में वापसी की और उस दौरान सपा के कुल 21 ब्राह्मण विधायक चुनकर गए थे।
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वहीं, इस फॉर्मूले को अगले चुनावों में ध्वस्त करते हुए भाजपा ने 2014 और 2017 चुनावों में जातिगत फैक्टर का हिन्दू कार्ड से ‘खेला’ कर दिया था। जिससे मायावती और अखिलेश दोनों ही चुनाव हार गए। 2017 में यूपी में 56 ब्राह्मण विधायक जीते थे, 56 में से 46 ब्राह्मण विधायक भाजपा के थे। पिछले तीन विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो पता चलता है कि जिस पार्टी के पास सर्वाधिक ब्राह्मण विधायक जीतकर आए उन्होंने सरकार बनाई।
यूपी की राजनीति में ब्राह्मण वर्ग का बहुत बड़ा प्रभाव रहा है, आजादी के बाद से सन 1989 तक यहां कुल 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे मगर 1990 के मंडल आंदोलन के बाद यूपी को कोई भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं मिला। इसकी मूल वजह यह रही कि यूपी की राजनीति एससी, मुस्लिम और पिछड़ों पर केंद्रित हो गई।
उत्तर प्रदेश इकलौता ऐसा राज्य नहीं है जहां ब्राह्मणों के वोटों के लिए अब चालें चली जा रही हैं। राम मंदिर निर्माण के शुरू होने के साथ ही देश की करीब-करीब सभी पार्टियों को आभास हो गया है कि सरकार बनाने के लिए बीजेपी का ब्राह्मण वोट बेहद जरूरी है।
भारत के दक्षिण राज्यों में मंदिर या ब्राह्मण वर्ग पर कभी भी विशेष ध्यान नहीं दिया गया, वहां की पार्टियां हमेशा अल्पसंख्यकों के वोटों पर आश्रित होने की वजह से ब्राह्मण वर्ग का शोषण ही करते रहीं। पिछले कुछ वर्षों में देश की हवा बदली है, इससे दक्षिण भी अछूता नहीं है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हाल ही में 100 करोड़ का फंड मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए आवंटित किया है।
वोट और अपनी साख बचाने के लिए ब्राह्मण होते हुए सदैव उस वर्ग का तिरस्कार करती आईं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को राज्य के विधानसभा चुनावों में अपने ब्राह्मण होने के सबूत देने पड़ गए। एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए ममता को यह कहना पड़ गया, “मैं विरोधी पार्टियों से कहना चाहती हूं कि मैं एक ब्राह्मण परिवार से हूं और उन्हें मेरे साथ धर्म कार्ड नहीं खेलना चाहिए। मुझे हिंदू धर्म मत सिखाओ।” जिस ममता की “ममता” हमेशा एक वर्ग विशेष पर रही जब ऐसे फूल उनके मुख से बरसे तो किसी को विश्वास ही नहीं हुआ !
आलम तो यह है कि मायावती अब अपनी माया “मुस्लिम-दलित” वर्ग पर कम, ब्राह्मणों पर ज़्यादा बरसा रही हैं। उसी के तहत अब वो और उनकी पार्टी राम मंदिर से लेकर ब्राह्मण संग खड़ी होने का स्वांग रचने में लगी हुई है। अब बसपा ने उत्तर प्रदेश चुनावों में फिर से ब्राह्मण राग जपना शुरू कर दिया है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण राज्य में शुरू हुए “ब्राह्मण सम्मेलन” हैं। इस कार्यक्रम की बागडोर मायावती ने बसपा के इकलौते ब्राह्मण चेहरे पार्टी महासचिव और राज्यसभा सांसद सतीश चंद्र मिश्रा को दे दी है। जिसकी शुरुआत मंदिर मुद्दे को भी साधते हुए अयोध्या से की गई, जहां अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए आगामी दिनों में मथुरा और काशी में यही सम्मेलन करने की बात सतीश चन्द्र मिश्रा ने कही।
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जब बसपा ब्राह्मण वोटों में सेंध लगाने में जुट गई तो सपा कैसे पीछे रह सकती थी। अखिलेश यादव ने अपने ब्राह्मण नेताओं के साथ मिलकर ये निर्णय लिया कि वो ब्राह्मण कुल के आराध्य भगवान परशुराम कि मूर्तियाँ राज्यभर में लगवाएंगे। इसके साथ ही ये भी कहा गया कि पहली मूर्ति लखनऊ में लगाई जाएगी और इसमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को आमंत्रित किया जाएगा।
इसके अलावा दिल्ली के ‘स्वयंघोषित मालिक’ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी 2022 के निगम चुनावों को जीतने के नए हथकंडे को अपनाते हुए राज्य के बुजुर्गों को मुफ्त तीर्थ यात्रा जैसे प्रलोभन देते हुए इसकी घोषणा कर दी है। ज्ञात रहे राम मंदिर विवाद के समय, स्कूल-अस्पताल बनाने के लिए पैरवी करने वाले यही साहेब इस मुफ्त तीर्थ योजना में अयोध्या नगरी को प्रमुख स्थान देते हुए कहते हैं कि “हम आपको अयोध्या राम नगरी के दर्शन कराएंगे।”
इन नेताओं के बदले हुए रुख को देखने के बाद एक बात तो साफ है कि बीजेपी ने धीरे-धीरे ही सही लेकिन सभी पार्टियों को अहसास दिला दिया है कि हिंदुत्व की आलोचना करके, सनातनियों का तिरस्कार करके आप सरकार में नहीं रह सकते।