क्या चुनावों के बाद हाथी कमल को मस्तक पर सजाएगा?

मायावती की BJP के प्रति बढ़ती आत्मीयता चर्चा में है!

बसपा भाजपा

आने वाले कल को बेहतर बनाने के उद्देश्य से बहुजन समाज पार्टी(बसपा), मायावती के नेतृत्व में भाजपा की पिछलग्गू बन रही है। ये कोई नयी बात नहीं जब कोई राजनीतिक पार्टी अपने हित साधने के लिए अकल्पनीय कदम उठा ले, मायावती ने भी कुछ ऐसा गठजोड़ बनाते हुए एकदम बीजेपी-सी राह चुन ली है। 2022 यूपी विधानसभा चुनाव के बाद यदि बसपा-बीजेपी साथ हो जाए तो आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। जिन पदचिन्हों पर अभी से मायावती ने चलना शुरू कर दिया है, उससे ये काफी हद तक साफ हो गया है की मायावती यूपी में अपने वर्चस्व को बचाने के लिए कोई भी राह अपना सकती हैं।

2017 में बसपा की हालत इतनी बुरी थी कि चुनावी नतीजों बाद तो बसपा नेताओं को मुंह दिखाना मुश्किल पड़ रहा था। इन चुनावों में बसपा मात्र 17 सीटों पर सिमट गई थी, वहीं सपा को कुल 47 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा बंपर बहुमत के साथ सरकार बना ले गयी थी। लोकसभा चुनाव में मायावती, बुआ-बबुआ जोड़ी के तहत समाजवादी पार्टी संग चुनावी रण में उतरीं और वहाँ सपा के मुक़ाबले बसपा ने बढ़त कायम करते हुए 10 सीटें जीतीं तो सपा को मात्र 5 सीटों से संतोष करना पड़ा था। अब न बुआ, बबुआ के साथ जाना चाहतीं और कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए क्षेत्रीय दल अब उससे गठबंधन करने से पहले 100 बार सोचते हैं, तो वो भी गणित नहीं बन पाएगा। अंततः बसपा के पास अपनी इज्ज़त वापस पाने का अवसर भाजपा के खेमे में जाकर ही सुरक्षित दिखता है।

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चुनाव के बाद NDA में बसपा का शामिल होना या भाजपा में विलय होने की संभावनाओं ने अभी से तूल पकड़ना शुरू कर दिया है, क्योंकि भले ही बसपा बीजेपी का चुनावी तौर पर विरोध कर रही हो, लेकिन मायावती खुलकर योगी के खिलाफ सीधे तौर पर कुछ नहीं बोल रही हैं। विपक्ष होने के नाते जो रुख सत्तापक्ष पार्टी के प्रति अन्य दल चुनाव से पहले रखते हैं, मायावती का रवैया लेश मात्र भी वैसा नहीं है। जिसके कारण राजनीतिक गलियारों में मायावती की अन्य दलों के प्रति बेरुखी और बीजेपी के प्रति बढ़ती आत्मीयता, चर्चाओं के बाज़ार को गरम कर रही हैं।

यह चर्चाएँ हवाई नहीं हैं, मायावती की पार्टी दलित-पिछड़ों की राजनीति करती आई हैं और बहुजन समाज पार्टी की तो उत्पत्ति ही तिलक-तराज़ू और तलवार (क्रमशः ब्राह्मण-वैश्य-क्षत्रिय) के विरोध में हुई थी। आज वही मायावती अपने मूल वोट बैंक को न साधते हुए ब्राह्मणों की हितैषी बन रही है। जहां एक ओर बसपा के THINK TANK कहे जाने वाले और पार्टी के इकलोते चर्चित ब्राह्मण चेहरे, महासचिव सतीश चन्द्र मिश्रा को मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलन करने के लिए कहा है, तो वहीं योगी सरकार में ब्राह्मणों पर हुए अत्याचार को लेकर वो भाजपा को घेरने में लगी हैं और राज्य भर में इसका विरोध दर्ज़ कराने के लक्ष्य से मायावती ने इन ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन किया है। अब विपक्ष होने के नाते इतना दिखावा तो करना ही पड़ता है वरना जो चर्चाएँ है उनपर मुहर नहीं लग जाएगी!

बसपा उन सभी मुद्दों को छूती जा रही है जो एक समय पर भाजपा के ही मूल एजेंडे में हुआ करते थे। सबसे बड़ी बात सतीश चन्द्र मिश्रा ब्राह्मण सम्मेलनों का शुभारंभ अयोध्या नगरी से करने जा रहे हैं, जिस “अयोध्याजी” से बसपा जैसे अन्य सभी दल किनारा करते आए थे आज उनको प्रभु राम का ही आसरा लेना पड़ रहा है। राजनीति क्षणभर में व्यक्ति को लोभ के प्रति आकंठ डूबा देती है और मायावती इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

शुक्रवार को पहले ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत अयोध्या के दर्शन करके सतीश चंद्र मिश्रा ने की। वहीं सम्मेलन को संबोधित करते हुए मिश्रा ने यह ऐलान भी किया कि – अयोध्या के बाद मथुरा, बनारस, चित्रकूट में बसपा के सम्मेलन करेंगे। अब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, इस ऐलान में कोई बड़ी बात न होती यदि इसमें इंगित जगहों का चयन रोचक न होता। भाजपा अयोध्या विवाद और राम मंदिर वाले वादे को पूरा करने में सफल हुई तबसे ही अन्य विवादित ढांचों के लिए लौ फड़क उठी जिनमें मथुरा-काशी प्रमुख हैं। अब इसमें कोई दो राय नहीं है कि बसपा उन्हीं स्थानों को चिन्हित करते हुए अपने ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन करते हुए बीजेपी की राह जाती दिख रही है।

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