बांग्लादेश का इस्लामी अधिग्रहण निश्चित रूप से एक संभावना है, भारत-बांग्लादेश को इसके लिए चिंतित होना चाहिए

बांग्लादेश तालिबान

“तालिबान आगे बढ़ो, भविष्य की दुनिया तुम्हारा इंतजार कर रही है” यह शब्द बांग्लादेश के युवक एस इस्लाम के हैं जिसने फेसबुक पर यह बात लिखी। किसी अन्य फेसबुक यूजर ने तालिबान की विजय को इस्लाम की जीत बताया है। हजारों की संख्या में फेसबुक यूजर तालिबान की जीत का जश्न मना रहे हैं। हालात यह है कि तालिबान का फेसबुक/ट्विटर पर बचाव करने वालों की बाढ़ आ गई है, यह लोग पश्चिमी मीडिया पर आरोप लगा रहे हैं कि वह तालिबान के विरुद्ध प्रोपेगेंडा चला रही है।

चीन अरबों डॉलर खर्च करके अपनी प्रोपेगेंडा मशीन चलाता है जिससे लाखों की संख्या में फेसबुक और ट्विटर यूजर चीन द्वारा अपने लोगों पर किए जा रहे अत्याचारों का किसी भी स्थिति में बचाव करते हैं। लेकिन तालिबान को ऐसा कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं पढ़ रही क्योंकि पूरे दक्षिण एशिया में कट्टरपंथी मुसलमान बिना एक रुपए के लालच के निस्वार्थ भाव से तालिबान का गुणगान कर रहे हैं और उसे आदर्श की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो अफगानिस्तान जाकर तालिबान में शामिल होना चाहते हैं। ढाका पुलिस ने पिछले दिनों की 4 लोगों को गिरफ्तार किया था। उन लोगों ने बताया कि उनका एक 10 सदस्यीय दल भारत और पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान जाने की तैयारी कर रहा था।

इसके पूर्व भी जब सोवियत रूस के विरुद्ध तालिबान ने युद्ध छेड़ा था तो बांग्लादेश से बड़ी संख्या में मुजाहिद्दीन आतंकवादी अफगानिस्तान गए थे। बाद में इन्हीं में से वापस आए लोगों ने जमात-उल-मुजाहिद्दीन और हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लाम जैसा संगठन बनाया। इन संगठनों का उद्देश्य बांग्लादेश की वर्तमान सरकार को अस्थिर करके वहां पर तालिबान की तरह कब्जा करना है। हालांकि, अभी बांग्लादेश सरकार तालिबान की विजय के बाद बढ़ते कट्टरपंथी उन्माद को लेकर अधिक चिंतित नहीं है लेकिन बांग्लादेश पर इसका कितना प्रभाव पड़ेगा यह इस बात से भी निर्धारित होगा कि तालिबान बांग्लादेश के आतंकी समूहों को किसी प्रकार की सहायता देता है या नहीं।

देखा जाए तो तालिबान की जीत ने पूरे मुस्लिम जगत को एक आत्मविश्वास से भर दिया है जिसके परिणाम सकारात्मक नहीं होने वाले। तालिबान ने अमेरिका की सहायता से सोवियत रूस को युद्ध में पराजित किया। लगभग एक दशक तक चले युद्ध के बाद सोवियत रूस का पतन हो गया था। सोवियत संघ के विघटन का सबसे बड़ा कारण उनकी आर्थिक अस्थिरता थी, लेकिन कई विशेषज्ञ मानते हैं कि अफगानिस्तान युद्ध को लड़ने में हुई भारी आर्थिक क्षति ने ताबूत में आखिरी कील का काम किया।

वहीं अमेरिका की बात करें तो अपनी मूर्खतापूर्ण  विदेश नीति के कारण अमेरिका ने पाकिस्तान पर अत्यधिक विश्वास दिखाया। पाकिस्तान ने अमेरिका की ही आर्थिक मदद से अमेरिका के विरुद्ध ही तालिबान को समर्थन दिया। इसका कारण यह रहा कि 20 वर्ष लंबे संघर्ष के बाद भी तालिबान समाप्त नहीं हो सका और अमेरिका को देश छोड़कर वापस जाना पड़ा।

तालिबान की दोनों जीत में, महाशक्तियों की मूर्खतापूर्ण विदेशनीति, आपसी संघर्ष और तालिबान को आम जनता से मिले समर्थन का बहुत बड़ा हाथ रहा। अफगान लोगों ने अमेरिका और सोवियत रूस को हमेशा एक उपनिवेशवादी देश के रूप में देखा। ऐसे कई कारण थे जिसने तालिबान को मजबूत बनाया।

लेकिन तालिबान की जीत को एक सामान्य मुसलमान इस्लाम की जीत मानता है। पूरे मुस्लिम जगत में यह विश्वास कायम हो रहा है कि इस्लाम की शक्ति से तालिबान ने दो महाशक्तियों को पराजित किया। ऐसे में तालिबानी विचार, मुसलमानों के लिए नया कूल ट्रेंड बन गए हैं। बांग्लादेश की लोकप्रिय नेता शेख हसीना के खिलाफ पहले ही कट्टरपंथियों में गुस्सा है। तालिबान की जीत आम मुसलमानों को कट्टरपंथ की ओर आकर्षित करेगी।

भारत पहले ही बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या से जूझ रहा है। ऐसे में यदि कट्टरपंथी संगठनों का बांग्लादेश में उदय होता है तो भारत को अपनी सीमा सुरक्षा को लेकर अत्यधिक सतर्क होने की आवश्यकता पड़ जाएगी। पश्चिम बंगाल में जिस प्रकार से कट्टरपंथ का प्रभाव पड़ रहा है यदि भारतीय मुस्लिम कट्टरपंथियों ने बांग्लादेशी संगठनों के साथ सहयोग किया तो भारत के लिए समस्या खड़ी हो जाएगी। चीन और पाकिस्तान निश्चित रूप से इससे लाभ उठाने की कोशिश करेंगे। भारत की पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान और उत्तरी सीमा पर चीन भारत के परम शत्रु है, ऐसे में भारत अपनी पूर्वी सीमा पर एक नई समस्या पैदा होते नहीं देखना चाहेगा।

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