बांग्लादेश ने मना किया, तुर्की ने बनाई दीवार: मुस्लिम देश ही अफगानी मुसलमानों की मदद नहीं कर रहे

यह मुस्लिम देशों का दोहरा रवैया नहीं तो और क्या है?

अफगान शरणार्थियों

अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद से बड़ी संख्या में अफगान लोगों का अपने देश से पलायन हो रहा है। काबुल एयरपोर्ट पर रनवे पर भागते और प्लेन से लटके लोगों का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है और इसी के साथ, तालिबान की इस जीत ने नई अफगान शरणार्थियों की समस्या को जन्म दिया है। अफगानिस्तान का संपन्न वर्ग जो लंबे समय से अमेरिका का सहयोगी रहा है, उसे अब किस देश में शरण मिलेगी यह अमेरिका के लिए एक चिंता का विषय है। अफगानिस्तान को छोड़कर भागने के कारण पहले ही अमेरिका की छवि को धक्का लगा है, ऐसे में अमेरिका चाहता है कि वह अपने साथियों को सुरक्षित देशों में शरण दिला सके। लेकिन अमेरिका की इस मुहिम को मुस्लिम देशों का ही समर्थन नहीं मिल रहा है।

रोहिंग्या मुसलमानों की तरह ही अफगानी मुसलमानों को शरण देने के मामले में मुस्लिम मिल्लत ने अपनी असमर्थता व्यक्त करती है। इतना ही नहीं अफगान शरणार्थियों को रोकने के लिए मुस्लिम देशों में सरकारी स्तर पर कार्य तेजी से किए जा रहे हैं। तुर्की ईरान से सटी सीमा पर 295 किलोमीटर लंबी एक दीवार का निर्माण कर रहा है। सोशल मीडिया पर कंक्रीट से बन रही दीवार की वीडियो वायरल है।

तुर्की के रक्षा मंत्री हुलुसी अकार ने बताया कि ईरान की सीमा पर 150 किलोमीटर लंबी ट्रेंच का निर्माण किया जा चुका है। तुर्की ने ईरान की सीमा पर अफगान शरणार्थियों की घुसपैठ को रोकने के लिए नाइट विजन उपकरण के साथ ही बड़ी संख्या में सर्विलांस व्हीकल तैनात कर दिए हैं। इसे तुर्की का पाखंड ही कहा जाना चाहिए कि जब इजरायल और हमास के बीच युद्ध छिड़ा था तब तुर्की ने इजरायल द्वारा की जा रही गाजा पर बमबारी की आलोचना की थी। तुर्की ने फिलिस्तीनी मुसलमानों के मानवाधिकार के मुद्दे को वैश्विक स्तर पर जोर शोर से उठाया था। लेकिन यही तुर्की अब अफगान शरणार्थियों को अपने देश में घुसने से रोकने के लिए अपनी सीमा पर दीवार बना रहा है।

वहीं बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने आधिकारिक बयान देते हुए जानकारी दी है कि उन्होंने अमेरिका के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्हें अफगानिस्तान से आए शरणार्थियों को अल्पकालिक समय के लिए अपने देश में शरण देनी थी। बांग्लादेश का तर्क है कि वह पहले ही रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या से जूझ रहा है ऐसे में वह अफगान शरणार्थियों को अपने देश में नहीं रख पाएगा। मीडिया रिपोर्ट की माने तो अमेरिका ने पहले ही मुस्लिम देशों से इस संदर्भ में बात शुरू कर दी थी लेकिन कोई भी देश अमेरिका के प्रयासों के बाद भी अफगान शरणार्थियों को शरण देने के लिए तैयार नहीं है।

कोसोवो, जो कि एक मुस्लिम बाहुल्य वाला देश है, जिसे वैश्विक मान्यता दिलाने के लिए अमेरिका लगातार प्रयासरत है वह भी अमेरिका के अनुरोध पर शरणार्थियों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अल्बानिया ने भी अमेरिका के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। वही अरब देशों की बात करें तो उन्होंने पहले ही रोहिंग्याओं को अपने देश में शरण देने से मना कर दिया था, अफगानिस्तान के संदर्भ में भी उनकी ओर से कोई भी प्रयास नहीं हो रहा है।

बता दें कि, सीरिया गृहयुद्ध के समय अरब देशों ने सीरियाई शरणार्थियों को फिर भी अपने देश में थोड़ी बहुत जगह दी थी लेकिन क्योंकि अरब देशों में अरब प्रायद्वीप के बाहर के मुसलमानों को हीन दृष्टि से देखा जाता है, इसलिए इन मुसलमानों को अरब देशों में अस्थाई रूप से काम भले मिल जाए लेकिन स्थाई रूप से शरण कभी नहीं मिल पाती। अरब देशों की जनसंख्या कम होने के कारण भी शरणार्थियों को उनके द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है। एक समय के बाद अरब देशों ने सीरियाई शरणार्थियों के लिए भी अपने दरवाजे बंद कर दिए थे।

जब यूरोपीय देशों ने सीरियाई शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे खोले थे उस समय सऊदी अरब ने मस्जिदे बनाने और शरणार्थियों को बसाने के लिए यूरोपीय देशों को आर्थिक अनुदान देने की बात कही थी। साफ है कि, अमीर मुस्लिम देश, दूसरे देशों में मुस्लिम शरणार्थियों को बसाने के लिए मदद दे सकते हैं लेकिन स्वयं उन शरणार्थियों को स्वीकार नहीं कर सकते हैं।

मक्का के निकट मुना नाम के शहर में सऊदी अरब में लाखों एयर कंडीशनर वाले टेंट लगा रखे हैं जिनका इस्तेमाल हज यात्रियों के लिए किया जाता है। कोविड काल में हज यात्रा पर रोक लग गई है। विदेशी हज यात्रियों को इस वर्ष सऊदी नहीं आने दिया गया है। ऐसे में सऊदी अरब चाहता तो साल भर तक हज यात्रियों के लिए बनाई गई रुकने की व्यवस्था का इस्तेमाल शरणार्थियों के लिए कर सकता था।

इसे मुस्लिम देशों का दोहरा रवैया कहा जाना चाहिए कि वह अपने देश की सुरक्षा और जनसांख्यिकीय परिवर्तन के डर से अन्य देशों के मुस्लिम शरणार्थियों को अपने यहां प्रवेश नहीं करने देते, वहीं दूसरी ओर जब किसी मुस्लिम देश पर किसी गैर मुस्लिम शक्ति द्वारा इसी प्रकार की सैन्य कार्रवाई की जाती है तो यही देश मुस्लिम मिल्लत और भाईचारे की बात करने लगते हैं। मुस्लिम देशों ने म्यांमार पर रोहिंग्या समस्या को लेकर जिस तीव्रता के साथ कार्यवाही की थी उसका दसवां भाग भी तालिबान के विरुद्ध देखने को नहीं मिलता है।

फिलिस्तीनीयों के पिटने पर शोर मचाने वाला तुर्की स्वयं राष्ट्रीय सुरक्षा के नामपर कूर्द मुसलमानों का दमन करता है। मुस्लिम मिल्लत का विचार गैर मुस्लिम देशों में आतंकवाद और कट्टरपंथी विचारधारा को फैलाने के अतिरिक्त और किसी कार्य में सहयोगी नहीं है। संभवत यह सही समय है कि दुनिया कट्टरपंथी मान्यताओं को उनके वास्तविक स्वरूप में समझे और उनके उद्देश्य के प्रति सचेत हो जाए।

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