दो दशकों से पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान का एक बड़ा हिस्सा अफगान युद्ध में तालिबान के समर्थन में जुटा हुआ था। अब जबकि तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है और अपनी सरकार बनाने जा रहा है तो पाकिस्तान की सत्ता के गलियारो में दहशत फैल रही है। जब से 2001 के अमेरिकी आक्रमण ने काबुल में पाकिस्तानी समर्थित तालिबान शासन को हटा दिया, तभी से पाकिस्तान की सेना ने आतंकी समूह को सावधानीपूर्वक मदद प्रदान की है। जिससे अफगान विद्रोहियों को अपने क्षेत्र में पनपने और कार्रवाई करने की आज़ादी मिलती रही।
बदले में तालिबान ने पाकिस्तान को भारत के खिलाफ छद्म युद्ध में मदद करने का भरोसा दिया बशर्ते पाकिस्तान गुप्त रूप से तालिबान की अमेरिका और गनी सरकार को उखाड़ फेंकने में मदद करे। उसे आर्थिक, रणनीतिक और सैन्य संसाधन मुहैया कराए। दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाली कहावत चरितार्थ हुई और पाकिस्तान तालिबान की मदद में जुट गया।
तालिबान को अफगानिस्तान पर कब्जा चाहिए था और पाकिस्तान को तालिबान की मदद, पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए तालिबान को मदद करना जारी रखा। पेशावर स्थित हक्कानी नेटवर्क को तालिबान का ‘’स्वार्ड आर्म’’ भी कहते हैं। तालिबान को आईएसआई के पूर्ण समर्थन के अलावा पाकिस्तान के विभिन्न आतंकवादी संगठनो का भी मदद प्राप्त है। पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन तालिबान से धन, बल और नेतृत्व से भी जुड़ें हैं।
तालिबान की सर्वोच्च संस्था शूरा से लेकर जिलों मे तालिबानी चेकपोस्ट स्थापित कराते लड़ाके सभी जगह पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन के लोग मदद करते हुए दिख जाएंगे। अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद पाकिस्तान इन सारे अहसानों के बदले तालिबान को भारत के खिलाफ़ एक शक्तिशाली ‘प्रॉक्सी वार’ के लिए इस्तेमाल करना चाहता था, लेकिन हालातों को देखकर ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के हाथ निराशा ही लगेगी।
दरअसल, अब तालिबान ने गनी सरकार को अपदस्थ कर दिया है। इसके बाद अब वहां की तालिबानी सरकार पाकिस्तान और करीब 20 साल की इस जंग को लेकर तीन निष्कर्षों पर पहुंची है।
प्रथम, पाकिस्तान ने तालिबान को कोई अपेक्षित मदद प्रदान नहीं की। ये विजय सिर्फ और सिर्फ उसके लड़कों का कमाल है। उल्टा तालिबान तो पाकिस्तान को अमेरिका का सहयोगी और युद्ध में अमेरिका की तरफ से लड़ते हुए तालिबान को बर्बरतापूर्वक क्षति पहुंचाने का दोषी मानता है। तालिबान के नेताओं के हालिया बयानों से तो कम से कम यही प्रतीत होता है।
पाकिस्तान को लताड़ते हुए तालिबान की राजनीतिक शाखा के रूप में अफगानिस्तान के इस्लामिक अमीरात के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने सोमवार शाम को ट्वीट कर कहा, “कश्मीर में जिहाद में शामिल होने के बारे में मीडिया में प्रकाशित बयान गलत है। इस्लामिक अमीरात की नीति स्पष्ट है कि वह अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है।’’
इतना ही नहीं तालिबान ने अपनी विदेश नीति स्पष्ट करते हुए इस मामले मे खुद के संप्रभु होने की घोसणा ही नहीं की बल्कि पाकिस्तान को चेताया भी । यह पूछे जाने पर कि वह पाकिस्तान के साथ अफगान तालिबान के संबंधों को कैसे देखते हैं, विशेष रूप से उन रिपोर्टों के संदर्भ में कि तालिबान पाकिस्तान को सुनने के लिए तैयार नहीं है, प्रवक्ता शाहीन ने कहा, “वे शांति प्रक्रिया में हमारी मदद कर सकते हैं लेकिन हम पर हुक्म नहीं चला सकते और न ही अपने विचार हम पर थोप सकते हैं। यह अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों के खिलाफ है।”
द्वितीय, तालिबान भारत को लेकर थोड़ा नरम है, जिसकी वजह से पाकिस्तान चिढ़ा हुआ है। भारत के प्रति नरम रवैया और अफगानिस्तान मे उसके विकास कार्यों की सराहना ने पाकिस्तान के कान खड़े कर दिए हैं। पाकिस्तान को तालिबान की मदद करने के पीछे का उद्देश्य ही खटाई मे पड़ता दिख रहा है।
तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने भारत के विकास कार्य जैसे सलमा बाँध, आधारभूत संरचना, बिजली, परिवहन, स्वस्थाय की काफी तारीफ की और इन्हे तथा दूतावास और भारत के कर्मचारियों को किसी प्रकार की क्षति न पहुंचाने का वादा किया। साथ ही साथ ऐसी भी खबरें हैं कि तालिबान उन परियोजनों को जिनके माध्यम से पाकिस्तान, अफगानिस्तान में अपनी पैठ बढ़ाने की फिराक में है उन्हें तबाह करने पर विचार कर रहा है।
तीसरा, मुल्ला बरादर एक तालिबान नेता है, जिसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान में हो रहे ‘ग्रेट गेम’ में अपने विजयी मोहरे के रूप में देखता था। मुल्ला बरादर को फरवरी 2010 में सीआईए और आईएसआई द्वारा संयुक्त रूप से कराची से पकड़ लिया गया था। इसके बाद अटकलें तेज हो गईं कि उस वक्त मुल्ला उमर भी कराची में था।
अटकलें ये भी लगी कि पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ मिलकर मुल्ला उमर को अफगानिस्तान में मरवाया था। जिससे तालिबान मे पाकिस्तान के प्रति दुराग्रह पैदा हुआ। धीरे-धीरे पाकिस्तान और तालिबान के द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट आती रही। ऐसे में पाकिस्तान तालिबान के कुछ एक प्यादों पर ही निर्भर हो गया।
जिनमें से एक मुल्ला बरादर थे। इसके बाद 2018 में जब अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत शुरू हो गई तो पाकिस्तान ने दबाव में मुल्ला बरादर को छोड़ दिया। इसके बाद भी तालिबान ने कभी पाकिस्तान को माफ नहीं किया।
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यह तीन निष्कर्ष ही पाकिस्तान के प्रति तालिबान के संबंधों की आधारशिला बनेंगे। 2001 से औपचारिक रूप से एक अमेरिकी सहयोगी के रूप में पाकिस्तान की सरकार तालिबान का समर्थन करने से इनकार करती है, लेकिन तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
अमेरिकी सेना की वापसी के बाद तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। इसके बाद अब तालिबान, पाकिस्तान को भाव नहीं दे रहा है। वरिष्ठ पाकिस्तानी अधिकारियों का कहना है कि तालिबान द्वारा कुल अधिग्रहण या अफगानिस्तान में एक नया गृह युद्ध इस्लामाबाद के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ होगा।
पाकिस्तान के पूर्व रक्षा मंत्री, सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल नईम लोधी ने कहा, “हम जातीय, धार्मिक, आदिवासी रूप से अफगानिस्तान के साथ इतने घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं कि जब भी गृहयुद्ध होता है, तो पाकिस्तान अपने आप घुस जाता है। अफगानिस्तान में गृह युद्ध वो आखिरी चीज है जो पाकिस्तान होने देना चाहेगा।”
सबसे खास बात यह गृह युद्ध चालू हो चुका है जो पाकिस्तान के लिए एक भयानक सपने के सच होने जैसा है। ख़बर है कि अफगानिस्तान के पंजशीर में तालिबान से भिड़ी सालेह की सेना और चरिकार पर कब्जा जमा लिया है। गृह युद्ध तो होगा क्योंकि ‘अफगानी वारलोर्ड्स’ इतनी शांति से शासन तो नहीं करने देंगे।