BCCI vs Sports Federations: खेलों में नए हिंदुस्तान की धमक तब दिखेगी जब Sports Federations का BCCI की तर्ज पर निजीकरण होगा

एक तरफ क्रिकेट में भारत सुपर पावर है तो वहीं दूसरी ओर अन्य खेलों में लंगड़ा घोड़ा

बीसीसीआई भारत

ओलंपिक खेलों में भारत जैसे तैसे करके अब तक दो मेडल जीत सका है। ऐसा नहीं है कि खिलाड़ियों का प्रयास या साहस कम था, बॉक्सिंग से लेकर बैडमिंटन तक, भारतीय खिलाड़ियों ने हर खेल में अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन हर ओलंपिक की तरह इस बार भी भारत को अब तक कुछ ही मेडल के साथ संतोष करना पड़ा है। यह दुखद है कि 140 करोड़ की आबादी वाले देश में मेडल जीतने वाले केवल दो हैं। किंतु इस परिस्थिति का जिम्मेदार किसे ठहराया जाए यह बड़ा सवाल है।

जब भी कोई खिलाड़ी ओलंपिक में मेडल जीतकर आता है या आती है तो उसके गरीब परिवार की तस्वीरों को मीडिया खूब चलाती है। खिलाड़ियों की वाहवाही होती है कि कम संसाधनों के बीच भी खिलाड़ी इतना परिश्रम करते हैं। परंतु बड़ा सवाल यही है कि इतना बड़ा देश हो कर भी हमारे खिलाड़ियों के लिए आवश्यक संसाधन कम क्यों पड़ रहे हैं।

वहीं दूसरी ओर क्रिकेट की बात करें तो भारत का प्रदर्शन केवल खेल के स्तर पर ही अच्छा नहीं रहा है, बल्कि क्रिकेट ने भारत को बहुत धन भी दिया है। देश की सबसे सफल खेल संस्था भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) सरकार से एक पैसा भी नहीं लेता है। दरअसल, बीसीसीआई ही सरकार को फंड देता है। 2016-17 में सरकार ने बीसीसीआई से 2140 करोड़ रुपये टैक्स वसूल किया था, जबकि उस वर्ष भारत का खेल बजट ही 1600 करोड़ ही था। अर्थात बीसीसीआई अकेले ही पूरे देश के खेलों का फाइनेंसर था। आखिर बीसीसीआई इतना सफल कैसे है और क्या रणनीति है कि खिलाड़ियों को संसाधन देने के साथ-साथ विश्व क्रिकेट का सुपर पवार बना हुआ है।

इसका सीधा जवाब है कि बीसीसीआई एक प्राइवेट संस्था की तरह काम करता है। यह बोर्ड भारत के खेल मंत्रालय के अंदर तो आता है लेकिन Sports Authority Of India के अंदर नहीं आता है। बीसीसीआई के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप न के बराबर है। ब्यूरोक्रेसी, नेता, मीडिया तथा माफिया आदि का नेक्सस BCCI की चयन प्रक्रिया में अप्रभावी है, इसलिए बीसीसीआई ने इस तरह विकास किया है। सबसे पहले तो बीसीसीआई ने क्रिकेट की मार्केटिंग इस तरह से किया कि प्राइवेट फंडिंग की बाढ़ आ गई और आयोजकों को सरकारी सहायता के लिए भीख मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ी।

बीसीसीआई ने अपनी इसी सफलता को एक ब्रांड बनाकर बाजार में उतारा है। सचिन तेंदुलकर के खेल को बाजार में कैसे इस्तेमाल करना है, यह BCCI बेहतर ढंग से जानता था, इसलिए कलर TV आने के साथ ही सचिन नाम का ब्रांड हर घर तक पहुंच गया। मार्केटिंग कैसे की जाती है यह MRF के उदाहरण से समझा जा सकता है, जिसे लम्बे समय तक बल्ले की कंपनी माना जाता रहा। कई कंपनियों ने बीसीसीआई के माध्यम से भारत में अपनी जगह बनाई। पेप्सी को लोकप्रिय बनाने में क्रिकेट खिलाड़ियों का सबसे बड़ा योगदान है। लेकिन यह सब तभी संभव हुआ जब बीसीसीआई ने निजी कंपनियों को बतौर स्पॉन्सर आमंत्रित किया। बीसीसीआई ऐसा इसलिए कर पाई क्योंकि उसके कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप शून्य था। IPL की सफलता भी इसी का नतीजा है। आज आईपीएल की गिनती विश्व के सबसे महंगे लीग टूर्नामेंट में की जाती है।

बीसीसीआई का सारा कामकाज ठीक ही रहा है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। बीसीसीआई पर भ्रष्टाचार के आरोप रहे हैं। IPL पर फिक्सिंग का आरोप लगता रहा है। लेकिन यह भी सत्य है कि भारत के अन्य खेल प्राधिकरण भ्रष्टाचार में अधिक संलिप्त हैं। हालात यह बन चुके थे कि ओलंपिक की अंतर्राष्ट्रीय निकाय ने IOA यानि Indian Olympics Association पर बैन लगा दिया था। वहीं दूसरी ओर बीसीसीआई की ताकत यह है वैश्विक संस्था ICC को भी बीसीसीआई की हर बात मनानी पड़ती है।

बीसीसीआई ने कम से कम इतना किया है कि योग्य खिलाड़ियों को उनका उचित स्थान और सम्मान दिया है, जबकि अन्य स्पोर्ट्स फेडरेशन में तो प्रतिभाओं का जमीनी स्तर पर ही गला घोंट दिया जाता है।

सप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश RM लोढ़ा जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि भारत सरकार को बीसीसीआई के संविधान से सीख लेनी चाहिए और उस आधार पर स्पोर्ट्स कोड तैयार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि, ‘देश को स्वायत्त खेल प्राधिकरणों की आवश्यकता है।‘ सरकार इनको फंड भी करे तो भी इनपर सरकारी नियंत्रण नहीं होना चाहिए। यह ठीक है कि आर्थिक मामलों की जाँच और समय-समय पर चुनाव करवाने को लेकर ऐसे स्वायत्त खेल संस्थानों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए। इसके लिए कड़े कानून की भी आवश्यकता रहेगी। परंतु खेल प्राधिकरणों की स्वायत्तता सबसे महत्वपूर्ण है। ऐसा अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी हो रहा है। भारत में BCCI को छोड़ अन्य खेल प्राधिकरण पर ऐसा सरकारी नियंत्रण है कि कोई बड़ी कंपनी भी स्पॉन्सर करने से कतराती है। बता दें कि UPA 2 के समय में अजय माकन ने 2013 में बीसीसीआई को राष्ट्रीय महासंघ का स्टेटस के लिए आवेदन करने का आमंत्रण दिया था जिससे बीसीसीआई को भी सरकारी नियंत्रण लिया जा सके।

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बीसीसीआई ने न केवल क्रिकेट को बदल दिया, बल्कि सामान्य रूप से खेलों की मार्केटिंग करने में एक उदाहरण बनकर, इसने अन्य खेलों के सामने मार्केटिंग का एक उदाहरण पेश किया है। आईपीएल ने अन्य खेलों के लिए लीग टूर्नामेंट शुरू करने में मदद की। राष्ट्रीय खेलों की जगह अब प्रो कबड्डी, इंडियन सुपर लीग (आईएसएल) जैसी रोमांचक लीगों ने धीरे-धीरे ले ली है। परंतु अब भी इन खेल प्राधिकारणों की हालत नहीं सुधरी है। जब तक देश के अन्य खेल संस्थानों का निजीकरण नहीं होता है तब तक उन खेलों का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो सकती है। साथ ही भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से छुटकारा पाने में भी असफल रहेंगे जिससे खिलाड़ी का विकास असंभव है।

आज भारत बैडमिंटन में भी ताकतवर बना है और साइना नेहवाल तथा पी वी सिंधु जैसे खिलाड़ियों ने विश्व में अपना परचम लहराया है तो यह पुललेला गोपीचन्द की मेहनत से। इसके बाद ही Badminton Association of India ने अपने आप को मजबूत किया और वित्तीय रूप से स्वतंत्र हुआ। MS Gill ने अपने खेल मंत्री रहते इस संस्था को भी अपने चंगुल में लेने का प्रयास किया था। जब खेल को Public Good बता कर उसे नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए खुला छोड़ दिया जिससे न सिर्फ खेल अंतिम साँसे लेने लग जाता है बल्कि जमीनी स्तर से खिलाड़ी भी आने से हिचकिचाते हैं।

स्वायत्त संस्थानों में नेताओं-अधिकारियों आदि का दबाव कम होगा। साथ ही धीरे-धीरे काम करने की सरकारी मशीनरी की आदत से मुक्ति इन संस्थाओं को BCCI की तरह ताकतवर बनाने अवसर मिलेगा। जब तक प्रतिभाओं के चयन में जमीनी स्तर से होने वाली धांधली बन्द नहीं होगी, सरकारी इको सिस्टम का दबाव समाप्त नहीं होगा, तब तक न तो फंडिंग आएगी, न स्पॉन्सर। परिणामस्वरूप भारत के खिलाड़ी संसाधनों की कमी से जूझते ही रहेंगे। भारत को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए देश के हर एक खेल निकाय का निजीकरण करना आवश्यक है तभी जा कर हमारा देश अन्य खेलों में भी क्रिकेट की तरह सुपर पावर बन सकेगा।

 

 

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