दोराबजी टाटा – जिन्होंने ओलंपिक में भारत की एंट्री कराई और भारत को पहला स्वर्ण पदक दिलाया

दोराबजी ने 1920 में एंटवर्प ओलंपिक तथा 1924 के पेरिस ओलंपिक में भारतीय टीम को भेजने के लिए कुछ खर्च वहन किया था!

दोराबजी टाटा

श्री दोराबजी टाटा : आधुनिक भारतीय खेल संस्कृति के जनक

आधुनिक जगत में पहली बार ओलंपिक खेल 1896 में एथेंस में हुए। चार वर्ष बाद ही पेरिस ओलंपिक में व्यक्तिगत तौर पर भारत ने ओलंपिक में पदार्पण किया, लेकिन एक दल के तौर पर भारत ने 101 वर्ष पहले एंटवर्प ओलंपिक 1920 में 5 सदस्यों के साथ पदार्पण किया था। यहीं से आधिकारिक तौर पर भारत के ओलंपिक अभियान की नींव पड़ी, जो आगे जाकर एम्स्टर्डम ओलंपिक में एक स्वर्णिम अभियान में परिवर्तित हो गया। आज भारत में यदि खेल संस्कृति का थोड़ा बहुत भी अंश प्रस्तुत है, तो उसके पीछे एक खेल प्रेमी उद्योगपति, श्री दोराबजी टाटा का हाथ रहा है, जिनका आज जन्मदिवस भी है।

1859 में 27 अगस्त को दोराबजी टाटा का जन्म हुआ। वे हीराबाई और जमशेतजी नुसेरवानजी टाटा के ज्येष्ठ पुत्र थे। बहुत कम लोग ये बात जानते हैं, परंतु वे रिश्ते से प्रख्यात वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा के चाचा भी थे। उन्होंने होमी के अनुसंधान में खूब सहायता भी की थी, विशेषकर वित्तीय तौर पर उनका योगदान महत्वपूर्ण था।

परंतु, दोराबजी टाटा का भारत के ओलंपिक अभियान से क्या नाता रहा है? उन्होंने किस प्रकार से भारत को उनका प्रथम स्वर्ण पदक जिताने में सहायता की थी? असल में जब 1920 में दोराबजी टाटा ने चाहा कि भारत के एथलीट भी ओलंपिक में हिस्सा ले, तो उन्होंने पाया कि भारत में ओलंपिक के प्रशासन के लिए कोई आधिकारिक संगठन ही नहीं है। अतः दोराबजी टाटा ने अपने दम पर इंडियन ओलंपिक कमेटी बनाई, जिसके अंतर्गत पहली बार ब्रिटिश इंडिया ने एक टीम एंटवर्प ओलंपिक के लिए भेजी। चूंकि उस समय एक आधिकारिक भारतीय ओलंपिक निकाय मौजूद नहीं था, सर दोराबजी ने 1920 में एंटवर्प ओलंपिक के लिए पहली भारतीय टीम को व्यक्तिगत रूप से वित्तपोषित करने का निर्णय लिया। इस टीम का नेतृत्व पूरमा बनर्जी नामक धावक ने किया, जिनके अलावा तीन एथलीट एवं दो पहलवान इस ओलंपिक में ब्रिटिश इंडिया का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इस खेल के लिए दोराबजी टाटा ने वित्तीय सहायता दिलवाने में भी एक अहम भूमिका निभाई।

भारतीय हॉकी के कौशल को वैश्विक स्तर पर ले जाने में दोराबजी का योगदान

लेकिन दोराबजी टाटा केवल वहीं तक सीमित नहीं रहना चाहते थे। उनकी अभिलाषा थी कि भारत न केवल ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करे, अपितु पदक भी जीते। उन्होंने एक प्रकार से हॉकी में भारत का कौशल खोजा, और उसे खूब बढ़ावा दिया। चार साल बाद, दोराबजी ने एक बार फिर 1924 के पेरिस ओलंपिक में भारतीय टीम को भेजने के लिए कुछ खर्च वहन किया। वहीं 1927 में दोराबजी टाटा ने न केवल इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन की आधिकारिक तौर पर स्थापना की, अपितु फील्ड हॉकी को पुनः ओलंपिक में शामिल भी करवाया।

1928 में जब एम्स्टर्डम ओलंपिक में ब्रिटिश इंडिया की टीम भारत का प्रतिनिधित्व करने गई, तो हॉकी टीम के सेलेक्शन में बतौर IOA अध्यक्ष स्वयं दोराबजी टाटा पहुंचे थे। उन्होंने ही जयपाल सिंह मुंडा को टीम के कप्तान के तौर पर चुना, और कहीं-न -कहीं ये दोराबजी टाटा ही थे, जिन्होंने ध्यान समेश्वर सिंह जैसे सिपाही के अंदर का उत्कृष्ट खिलाड़ी पहचाना। आज यही सिपाही ‘हॉकी के जादूगर’, मेजर ध्यानचंद के नाम से विश्व प्रसिद्ध हैं। भारत ने जब एम्स्टर्डम ओलंपिक में अपना पहला स्वर्ण पदक जीता, तो उसके लिए उसने 29 गोल किये, जिसमें अकेले 14 गोल मेजर ध्यान चंद ने दागे थे।

दोराब जी टाटा एक सफल उद्योगपति के साथ-साथ ही एक उत्कृष्ट खेल प्रेमी भी थे, और उन्हीं के योगदानों के कारण भारत में आधुनिक खेल संस्कृति की नींव पड़ी। दुर्भाग्यवश भारत को लगातार दूसरा स्वर्ण पदक जीतते हुए देखने के लिए दोराबजी जीवित नहीं रह सके और 3 जून 1932 को जर्मनी में उनका निधन हो गया। यदि आज भारत ओलंपिक में दुनिया के बड़े बड़े देशों से भिड़ने योग्य है, तो उसमें एक बहुत बड़ा योगदान दोराबजी टाटा और उनके निस्स्वार्थ सेवा का भी है।

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